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________________ "भगवन ! मैं आप को एक साधारण, दुर्वल सन्यासी ही समझता था, परन्तु आप तो एक असाधारण सन्त हैं, सन्त ही नही, सन्तशिरोमणि हैं, आपका धैर्य और शौर्य बडा ही विलक्षण है, पाप इतने महान् सहिष्णु और दृढव्रती हैं, इसकी मुझे स्वप्न मे भी कल्पना नहीं थी। क्षमासागर प्रभो, मेरे अपराधो के लिये मुझे क्षमा करे। मैंने आज की रात्रि मे आप को जो दु ख दिये है, इसका मुझे हादिक खेद है, पश्चात्ताप है, ग्लानि है । आपकी अहिसा-माधना ने मेरा हृदय विल्कुल परिवर्तित कर दिया है । प्रत. आज मैं आपके श्री चरणो मे सच्चे हृदय से प्रतिज्ञा करता हूं कि आज से मैं किसी जीव की हिंसा नही करू गा और अहिंसा भगवती की आराधना करता हुआ अपने पापो का प्रायश्चित्त करूंगा।" इतना कहकर शूलपाणि यक्ष सजल नयनो के साथ भगवान के चरणो मे अपना मस्तक रख कर क्षमा मांगता हुआ वहां से चला गया। उस समय मुहूर्त भर रात्रि अवशिष्ट थी, तत्पश्चात् भगवान महावीर को अचानक निद्रा आ गई।' निद्रित अवस्था मे ही भगवान ने दश स्वप्न देखे १ एक तालपिशाच को अपने हाथो से पछाडते देखा। २ एक श्वेत पक्षी को अपनी सेवा मे उपस्थित देखा। ३ विचित्र वर्णवाला पुस्कोकिल सामने देखा। ४ देदीप्यमान दो रत्नमालाए देखी। . . श्री कल्पसूत्रीय टीका के अनुसार शक्रेन्द्र महाराज द्वारा नियुक्त किए हुए सिद्धार्थ देव ने जव शूलपाणि यक्ष का यह उपद्रव देखा, तव वहां आकर उसने उसे बहुत डाटा और कहा, "ये भगवान महावीर हैं, देवेश शकेन्द्र के आराध्य हैं, यदि तेरो इस काली करतूत का उन्हे पता चल गया तो वे तेरा नामोनिशान मिटा देंगे। सिद्धार्थ देव की इस धमकी से शूलपाणि यक्ष भयभीत हो गया और उसी समय उसने भगवान से क्षमा-याचना की तथा भविष्य मे ऐसी भूल न करने का प्रण किया। २. तत्थ सामी देसूणे चत्तारि जामे अतीव परितावितो।। पभायकाले मुहुत्तमेत्त निद्दापपाय गतो ॥ -माव० म० पृ०२७० पञ्चकल्याणक ] [ ५५
SR No.010168
Book TitleBhagavana Mahavira ke Panch Kalyanaka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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