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जो विश्वास था.उसे आज वे परखना चाहते थे, तथा यक्ष के सुवार की भी उनकी प्रवल भावना थी, अत: वे सब के कहने पर भी किमी अन्य स्थान पर नहीं गए, प्रत्युत वही पर एक कोने मे व्यान लगा कर खड़े हो गए। __रात्रि होने पर शूल राणि यक्ष ने भगवान महावीर को व्यानावस्थित देख कर सोचा-"यहा रात्रि को रहना निषिद्ध है यह समझा देने पर भी यह साधु यहा से गया नहीं और ध्यान लगा कर खडा हो गया है, मालूम होता है इसे अपनी शक्ति का अभिमान हो गया है। सबसे पहले मैं इसके अभिमान का नशा उतारता है। उसने कहकर इतना भयकर अट्टहास किया जिससे कि आस-पास का सारा प्रदेश काप उठा, परन्तु भगवान महावीर पर इस अट्टहास का कोई प्रभाव नहीं पडो । वे पहले की भाति न्यानस्थ ही ग्वडे रहे।
अब उस यक्ष ने हाथी का रूप धारण करके तीक्ष्ण दातो से भगवान महावीर पर अनेको प्रहार किए, उन्हे पात्रो मे रौंदा, पिशाच बनकर भयकर नखो से भगवान के शरीर को नोचा, सर्प बन कर जहरीले डक मारे, तथापि भगवान अपने ध्यान से विचलित नहीं हुए । यक्ष को जव अपनी पराजय होती दिखाई देने लगी तो उसने अपने अन्तिम हथियार का प्रयोग किया और भगवान के पाख, कान, नाक, सिर, दांत, नख और पीठ इन सात स्थानो पर ऐसी भय करतम वेदना उत्पन्न कर दी कि यदि कोई साधारण व्यक्ति होता तो वह तत्क्षण वही पर ढेर हो जाता, परन्तु महावीर तो सच्चे महावीर थे, सात स्थानो को छोडकर यदि शरीर के सभी अगो मे इस से भी उन वेदना पैदा कर दी जाती तव भी वे डावाडोल होनेवाले नहीं थे, सकटो की इस लोम-हर्षक आधी मे भी प्रभु महावीर मेरु पर्वत की भाति अडिग रहे।
शूलपाणि यक्ष अपना पूरा जोर लगा कर अब थक चुका था, परिणाम स्वरूप महावीर के धर्य और शौर्य के आगे वह लज्जित तथा नतमस्तक हो गया, अन्त मे प्रभु के चरणो मे प्रणत होकर क्षमायाचना करने के अतिरिक्त उसके पास कोई चारा नही था। इसलिये प्रभु के चरणो मे गिरकर उसने क्षमायाचना करते हुए विनम्र प्रार्थना की
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[ दीक्षा-कल्याणक