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शिखरो से ऊचा रत्नो का ढेर भी सामायिक के मूल्याकन के लिये तुच्छ है।
__ राजा श्रेणिक को ज्ञात हो गया है कि मेरा नरक-गमन अवश्य भावी है, अत मुझे सजग होकर अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए।
राजर्षि प्रसन्नचन्द्र :
एक दिन राजा थेणिक ने भगवान के दर्शनो के लिये आते हुए एक महर्षि को उग्र तपस्या करते हुए देख कर पूछा-'भगवन् ! यह महपि किस उत्तम गति को प्राप्त करेगा।'
भगवान् महावीर ने कहा-श्रेणिक | यदि यह इस समय मृत्यु को प्राप्त हो जाये तो यह सातवे नरक ... छठे नरक......नही पाचवे नरक ... चौथे नरक . .. तीसरे नरक...... दूसरे नरक......पहले नरक, नही श्रेणिक प्रथम देव-लोक,.....इसी क्रम से प्रभु ऊपर के ब्रह्मलोक और उसके अनन्तर सहसा बोले अव तो वह केवल ज्ञानी बन कर मोक्षाधिकारी बन गया है।
सारी सभा विस्मियत थी। प्रभु के इस कथन ने सब को आश्चर्य के सागर मे डुबो दिया। अब भगवान् ने कहा
श्रेणिक | ये महर्षि राजा प्रसन्नचन्द्र है। जब तुम दर्शनार्थ आ रहे थे तो तुम्हारे दो सैनिको से इन्होने सुना-'यह राजा प्रसन्न चन्द्र अपने छोटे से पुत्र को राज्य देकर तपस्या कर रहा है और उसका नन्हा सा पुत्र शत्रुनो से घिरा हुआ है।"
यह सुनते ही महषि प्रसन्नचन्द्र क्रोधावेश मे पागए और मन ही मन पुत्र के शत्रुओ पर आक्रमण करने लगे। भाव-जगत् मे इन्होने समस्त अस्त्र-शस्त्र शत्रुओ पर फैके और खून की नदिया बहाते रहे, तब यह नरक की गति मे गिरते चले जा रहे थे। शस्त्र समाप्त होने पर उन्होने शत्रु पर अपना मुकुट फैकना चाहा, अत. इनके हाथ मुडे हुए सिर पर पहुचे, तो इन्हे तत्काल ज्ञान हुआ "मैं तो एक साधु हू, मेरा कौन शत्रु है, कोन पुत्र है कोई नही। मेरे लिये सब समान है, सव महान् हैं । इस प्रकार भाव जगत् को शुद्धि इन्हे क्रमश. देवलोको की ओर ले जा रही
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[ केवल-ज्ञान-कल्याणक