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________________ थी। अन्त मे ऐसी भाव-विशुद्धि हुई कि अब इन्हे केवल ज्ञान प्राप्त हो गया है, अत अव वे मोक्ष-गमन की ही तैयारी कर रहे हैं। मानसिक पाप-पुण्य का गम्भीर ज्ञान प्राप्त कर राजा श्रेणिक नतमस्तक होगया। यही पर भगवान् के प्रवुद्ध शिष्य श्री आर्द्रक मुनि के साथ गोशालक का वार्तालाप हुआ था और उन्होने गोशालक को समझाया था कि मैंने प्राणिमात्र के उद्धार की प्रवल इच्छा से प्रेरित होकर ही एकान्त जीवन का परित्याग करके संघ-जीवन अपनाया है। आर्द्रक मुनि जी ने यही पर वौद्ध-भिक्षुत्रो को समझाया था कि"प्राणियो की हिंसा करके भिक्षुप्रो को भोजन देनेवाला गृहस्थ सद्गति प्राप्त नही कर सकता। आर्द्रक मुनि जी ने इसी चातुर्मास मे ब्राह्मणो के एक बडे वर्ग को, साख्य-दर्शन के अनुयाइयो को, हस्ति-तापसो को प्रबोध दिया और वे भगवान् से दीक्षा ग्रहण कर श्री पाक मुनि जी की ज्ञान-गरिमा की छाया मे बैठकर साधु-जीवन व्यतीत करते हुए प्रात्म-कल्याण करने लगे। यह चातुर्मास भी राजगृह मे ही व्यतीत हुआ। तीर्थकर जीवन का बीसवां वर्ष वर्षावास की पूर्णता पर प्रभु ने कौशाम्बी की ओर विहार कर दिया । मार्ग मे पालभिया के शखवन नामक महा उद्यान मे ठहरे । पालभिया के प्रसिद्ध श्रमणोपासक ऋषिभद्र से वहां के श्रावक देवलोको के सम्बन्ध मे जो कुछ सुना करते थे, प्रभु के वहा पहुचने पर जव वे ही बाते उन्होने प्रभु महावीर से भी सुनी तो उनकी श्रमणोपासक ऋषिभद्र पर तया भगवान महावीर पर अगाध श्रद्धा हो गई। पालभिया से प्रभु कौशाम्बी की ओर चल पडे। हृदय वदल गया कौशावी नरेश शतानीक की पत्नी मृगावती श्रमणोपासिका थी। वह रूपवती नवयौवना सुन्दरी थी, अत. अवन्ती नरेश चण्डप्रद्योत जो उसका वहनोई था, वह उसके रूप-सौन्दर्य पर नासक्त था। विधवा पञ्च-कल्याणक] [११३
SR No.010168
Book TitleBhagavana Mahavira ke Panch Kalyanaka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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