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रानी मृगावती उसके सैनिक-वल के कारण उसे अनेक प्रकार की युक्तियो से टाल रही थी, परन्तु इस बार वह अन्तिम निर्णय के लिये सेना सहित कौशाम्बी आ पहुचा। इसी समय भगवान् महावीर का भी वहा आगमन हो गया। भला जहां भगवान महावीर हो वहां दोपमय वातावरण कहा रह सकता था ? अत: उसकी पाग्नि एव कामाग्नि स्वत ही शान्त होने लगी।
भगवान् की धर्म-सभा मे मृगावती और चण्ड प्रद्योत दोनो ही पहुचे। प्रभु की वाणी ने मृगावती के हृदय की वैराग्य-भावना को उद्दीप्त कर दिया और उसने उचित अवसर देख कर बड़ा बहनोई होने के नाते चण्डप्रद्योत से उदयन की रक्षा का आश्वासन और स्वय के दीक्षित होने की बाजा मागी।
चण्डप्रद्योत भी उस समय शुद्ध-भावनायो मे लीन था। उसने भगवान् के सान्निध्य मे उदयन के राज्य-रक्षण का आश्वासन दे दिया और मृगावती दीक्षा के लिये प्रस्तुत हो गई। राजा चण्ड प्रद्योत की अगारवती आदि पाठ महारानियो ने भी चण्ड प्रद्योत से दीक्षा की आज्ञा मागी तो उसने मन्त्रमुग्ध की भाति उन्हे भी साधु-जीवन में प्रवेश की आज्ञा दे दी। इस प्रकार ये नौ महारानियां भी श्रमणी-सघ मे प्रविष्ट होकर साधना-पथ पर बढने लगी।
भगवान् इस प्रदेश मे साधु-सघ के साथ विहार करते हुए ग्नीष्मान्त मे वैशाली पहुच गए और बीसवा चातुर्मास उन्होने यही पर व्यतीत किया। इक्कीसवें चातुर्मास की ओर
वैशाली के चातुर्मास की पूर्णता पर प्रभु महावीर ने विहार कर दिया और उत्तरी विदेह एव मिथिला होते हुए काकन्दी' पहुच कर उन्होने धन्य एव सुनक्षत्र आदि को दीक्षित किया। __ यहा से श्रावस्ती को पावन करते हुए काम्पिल्य निवासी महा
१ काक्रन्दी यह उत्तर प्रदेश के गोरखपुर नगर से तीस मील दक्षिण-पूर्व मे स्थित वर्तमान किष्किन्धा (खुखुन्दो जी) नामक दिमम्बर जैन तीर्थ का प्राचीन नाम ज्ञात होता है।
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केवल-ज्ञान-कल्याणक