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यह वात सत्य है कि प्रकृति ने पुरुष और नारी को अलग-अलग शक्तिया प्रदान की है, सामाजिक जीवन में उनके कर्तव्यों में अवश्य भेद रहता है, किन्तु पुरुष की आत्मा और स्त्री की आत्मा मे कोई भेद नही है । दोनो के जन्म लेने. कर्म करने और कर्मों का फल भोगने के माध्यमो तथा विधियो में कोई अन्तर नही, इमलिये दोनो का श्रात्मधर्म एक ही है। दोनो को मोक्ष-प्राप्त करने का समान अधिकार है।
तीर्थड्रो ने पुरुप और नारी के धार्मिक अधिकारो मे कभी भेद नही माना। तीर्थकर जाति-पाति को भी स्वीकार नहीं करते। किसी भी जाति का व्यक्ति इम निम्र न्य-धर्म को ग्रहण कर के अपनी आत्मा का कल्याण कर सकता है ।
भगवान की उपदेश गगा इस प्रकार अवाच-गति से प्रवाहित हो रही थी, जन-मानस मे आलोक की किरणे फैल रही थी, मिथ्यात्व का अन्धकार फट रहा था, लोग मस्त होकर अमृत का पान कर रहे थे। उन्हें ऐसा लग रहा था जैसे कि पहली ही बार उन्हे यह दिव्य प्रकाश प्राप्त हुया हो । भूले-भटके लोगो को जीवन की नयी राहे मिस रही थी। भगवान की प्रोजस्विनी-वाणी से बहुत से लोगो का मोह भग हो गया और वे साध-जीवन के लिये तत्पर हो गये। अपनी शक्तियोग्यता तथा परिस्थिति पर वे गम्भीर चिन्तन करने लगे। वहुत से भावुक स्त्री-हृदय भी सयम के लिये मचलने लगे। अपने आप को सयम जीवन की कठोर अाराधना मे असमथ पाते हुए बहुत से अन्य जन भगवान के श्रमणोपासक व श्रमणोपासिकाए बनने के लिये तैयार हो गये। समवसरण मे प्रत्येक स्त्री-पुरुष के अन्तरङ्ग में एक आध्यात्मिक उत्क्रान्ति चल रही थी। इतने मे सहसा ही भगवान की धर्म-सभा मे एक नया ही दृश्य उपस्थित हो गया। गणधरों का आगमन : _ 'मध्यमा-पावा' नामक नगरी मे सोमिल ब्राह्मण एक महायज्ञ कर रहा था। सारे पूर्वी भारत मे उस यज्ञ की खूब धूम मची हुई थी। उस यज मे वैदिक-धर्म के बडे-बडे धुरन्धर विद्वान् उपस्थित थे। उनकी चार हजार चार सौ शिष्य-सम्पदा भी उनके साथ थी। सोमिल की
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[केवल-ज्ञान-कल्याणक