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ज्ञान और दर्शन के परिप्रेक्ष्य मे वोलते हुए उन्होने जीव, ग्रजीव पुण्य, पाप श्रव, सवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष का विशद विवेचन किया ।'
लोक का स्वरूप समझाते हुए जीवास्तिकाय, धर्मास्तिकाय, ग्रवर्मास्तिकाय प्रकाशास्तिकाय और पुद्रलास्तिकाय, का विस्तृत प्रतिपादन किया । ज्ञान और दर्शन से जीव को अपने स्वरूप का ज्ञान होता है औौर चारित्र से 'स्व' तत्व की उपलब्धि होती है । ज्ञान के वाद ही वस्तु की सप्राप्ति की इच्छा जागती है, ग्रत: ज्ञान एव दर्शन के वाद जीवन मे चारित्र का उदय होता है । समाज मे स्वस्थ, सुखी तथा श्रेष्ठ जीवन व्यतीत करने के लिये भी चारित्र ग्रपेक्षित है और इस जीवन के उपरान्त सद्गति और मुक्ति प्राप्त करने के लिये भी चारित्र परमावश्यक है ।
जो साधक चारित्र को धारण करता है । वह श्रमण अर्थात् साधु “कहा जाता है और इस चारित्र की साधिका - स्त्री श्रमणी अर्थात् साध्वी कहलाती है ।
जो सावक ससार की चीज़ो का मोह नही छोड़ सकते, जो अपनी इन्द्रियों और मन पर पूर्ण नियन्त्रण नही रख सकते, जिनके हृदय मे अभी पूर्ण वैराग्य नही उत्पन्न हुआ, जो त्याग मार्ग पर चलने में अपने आप को असमर्थ पाते हैं, उन्हें देश-व्रती चारित्र का आरावन करना चाहिये । यह चारित्र वारह व्रतो पर ग्राधारित है । वे वारह व्रत हैं— स्थूल प्राणातिपात विरमण-व्रत, स्थूल- मृपावाद - विरमण व्रत, स्थूल-प्रदत्तादान - विरमण व्रत, स्वदार-सतोष व्रत और इच्छा-परिमाण व्रत । ये पाच अणुव्रत हैं । इन अणुव्रतो के अतिरिक्त सात और व्रत है । जिन्हे गुण व्रत और शिक्षा-व्रत कहते हैं । गुण-व्रत तीन हैं और शिक्षा व्रत चार हैं । गुण-व्रत हैं- दिशा परिमाण - वत, भोग- उपभोग परिमाणव्रत और अनर्थदण्ड विरमण-व्रत सामायिक व्रत, देशावकाशिक-त्र पीपवव्रत और अतिथि - सविभाग- व्रत ये शिक्षा व्रत कहे जाते है । जो गृहस्य इन सम्पूर्ण व्रतो या इनमे से कुछ व्रतो को ग्रहण करता है उसे देश चारित्री श्रावक या श्रमणोपासक कहा जाता है । जो केवल केवली प्ररूपित धर्म पर विश्वास करता है और गुरु के सच्चे स्वरूप को समझ कर उन पर ग्रास्या रखता है उसे दर्शनी श्रावक कहा जाता है । इसी प्रकार इन व्रतो की आराधिका स्त्री श्रमणोपासिका कहलाती है ।
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पञ्चकल्याणक ]
-त्रत,