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का ज्ञान पहले ही हो जाता है, किन्तु अल्पज को अपनी वास्तविक शक्ति व स्थिति का बोध कार्य के पश्चात् होता है। तीर्थकर प्रत्येक व्यक्ति को अपनी अनुभूति के द्वारा ही अपनी शक्ति, योग्यता तया स्थिति को समझने का अवसर देते हैं। तीर्थकर अपने समवसरण मे यह सदैव जानते है कि कौन प्रतियुद्ध होगा और कौन नहीं, किन्तु फिर भी वे एक-एक को चुन-चुन कर ज्ञान के बूट नहीं पिलाते, बल्कि वे सहज भाव मे सबको अपनी शान-गगा का पीयूप पिलाते हैं। भाग्यवान पी जाते है और पुण्यहीन वमन कर देते है। तीर्थकर अपने जान के मोती समान भाव से दिखेरते जाते हैं। राजहम तो मोती चुग लेते है और दूसरे पक्षी व्यर्थ ही चोच रगड-रगड कर उड़ जाते है । कहना होगा कि भगवान महावीर की प्रथम धर्म-देशना के ज्ञान-,क्ता चुगने के लिये भगवान के समवसरण रूपी सरोवर मे कोई राजहस नहीं पहुचा। देवो और पशुमो के लिये वे किसी काम के नहीं थे । इसलिये तीथंडर महावीर की प्रथम देशना अकार्थ चली गई। जैन-जगत में इसे दस आश्चर्यो मे एक माना जाता है।
वैशाख शुक्ला एकादशी के दिन भगवान महावीर ने मध्यमा पावा की अोर विहार किया। यहां वे महासेन नामक उद्यान मे ठहरे । उनके शुभागमन की सुखद सूचना विद्युत-लहरी की तरह सारी नगरी मे फैल गई । वाल-युवा व वृद्ध सभी नर-नारी भगवान की अमृत वाणी का पान करने के लिये सागर की तरह उमड पड़े। भगवान महावीर ने लोकहितार्थ परम सत्य का प्रतिपादन किया । उन्होने फरमाया कि
चौरासी लाख जीव योनियो मे कर्मों के अनुसार भ्रमण करते हुए अत्यन्त पुण्योदय से मानवता की उपलब्धि होती है। क्योकि मनुष्य इस धरती का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है, वही ज्ञान के प्रकाश मे उत्तम कर्म करता है और अज्ञानावस्था मे अधर्माचरण करके अघम यति मे चला जाता है । स्वर्ग की सत्ता मनुप्य की पुण्य-साधना पर खड़ी है। पशु और नरक मनप्य के नीच कर्मो का ही दुखद परिणाम है। मनुष्य के अपने जीवन मे भी जो दुख-सुख रोग-शोक, सयोग-वियोग तथा मान-अपमान देखा जाता है वह भी मनुष्य के कर्मों का ही प्रतिफल है। मनुष्य को सत्यासत्य का आवश्यक विवेक होना चाहिये । तभी वह अपने तथा अन्य के जीवन का कुछ हित कर सकता है।
[ केवल-ज्ञान-कल्याणक