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मे कहा जाना है कि गोपियां और गौए दूर-दूर से भी कृष्ण की वासुरी की तान सुन कर भागी आती थी । तव भगवान महावीर की वाणी का माधुर्य एक योजन तक बिखर रहा हो और कोई भी मानव उससे श्राकर्षित होकर समवसरण मे न पहुचे, ऐसा सोचना भगवान की वाणी को हीन कहना है । मैं ऐसा समझता हूं कि भगवान के समवसरण मे मानव तो बहुत थे, किन्तु मानव का हृदय रखनेवाला और भगवान की वाणी को धारण करने में सक्षम जन-मानस वहा शायद कोई नही था । जव उत्तम पदार्थ वो पात्र ग्रहण नही कर पाता तो उसमे पदार्थ का दोष नही होता, बल्कि पात्र की अपनी अयोग्यता होती है । जिस धर्म-सभा मे कोई मानव नही उसमे धर्मोपदेश देने से तीथङ्कर का उद्देश्य सिद्ध नही हो सकता । तीर्थङ्कर 'तीर्थ' की स्थापना करने के लिये ही प्रवचन देते हैं, क्योकि तीर्थ के द्वारा ही वे ससार मे धर्म-चक्र का प्रवर्तन करते हैं । तीर्थ की स्थापना मानव मात्र के कल्याण के लिये होती है और वह मानव जाति के वल पर ही की जाती है। वहां पशु और देव की अपेक्षा नही होती । सामान्य दृष्टि से पशु चरित्र का अधिकारी नही, किन्तु पवाद दशा मे कही-कही वह भी भाव-जगत मे व्रती बन सकता है । देवता तो सदैव व्रती ही रहते हैं, इसलिये भगवान के समवसरण मे उनके थाने से और तीर्थङ्कर की देशना सुनने से तीर्थ-स्थापना का वास्तविक उद्देश्य सिद्ध नही होता, किन्तु यहा यह भी कहा जा सकता है कि तीर्थङ्कर के उपदेश को धारण करने मे ग्रक्षम मानव-सभा मे भी उपदेश देने से तीर्थङ्कर का क्या प्रयोजन सिद्ध हो सकता है ? कुछ भी नही ।
परन्तु तीर्थङ्कर सर्वज्ञ होने से यह जानता है कि मेरी देशना से किसी को भी प्रतिबोध होनेवाला नही है, फिर भला वे क्यो देशना देते है ? इस प्रश्न के उत्तर मे इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि तीर्थङ्कर सब कुछ जानते हुए भी लोक-मर्यादा का उल्लघन कदापि नही करते । व्यावहारिकता का वे पूर्ण परिपालन करते है । अपने पास आए हुए जन-समाज को वे यह कदापि नही कहते - चलो | भागो | यहा से । तुम मे से किसी को भी प्रतिबोध होनेवाला नही है । में व्यर्थ ही अपना समय नष्ट करना नही चाहता । तीर्थङ्कर यथार्थ द्रष्टा होने पर भी किसी को कठोर तथा अशिष्ट वचन नही कहते । सर्वज्ञ को दूसरे की स्थिति
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पञ्चकल्याणक }
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