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न इसे सफेद कहा जाय और लाल रक्त की दृष्टि से क्या कौए को लाल नही कहा जा सकता ? श्रनेकान्त का सिद्धान्त धीरे-धीरे उभरता चला
प्राया ।
पूर्व जन्मार्जित विद्या
वर्धमान महावीर को माता-पिता ने शिक्षा के लिये गुरु के पास भेजने का निश्चय किया । वैशाली के प्रसिद्ध कलाचार्य के पास उन्हें शिक्षित होने के लिये ले जाया गया, परन्तु यह घटना ऐसी ही थी मानो ग्राम्रवृक्ष को ग्राम्रपत्रो की तोरणो से सजाने का प्रयास किया जा रहा हो । मानो ग्रमृत को मीठा करने के लिये उस मे शर्करा घोली जा रही हो, या चान्द को सफेद करने के लिये दूध से धोने की योजना बनाई जा रही हो ।
गम्भीर धीर महावीर ने माता-पिता की ग्राज्ञा का पालन किया, और वे विद्यालय मे कलाचार्य के पास जा पहुचे | कलाचार्य के पास बैठे एक वृद्ध ब्राह्मण ने (जो वस्तुतः इन्द्र था) वर्धमान से कुछ व्याकरण सम्बन्धी प्रश्न किये | महावीर ने उत्तर के रूप में पूरा व्याकरण- शास्त्र समझा दिया । कलाचार्य की विद्या गोते खाने लगी । श्रव वृद्ध ब्राह्मण ने कुछ अध्यात्मिक प्रश्न किए। उनके उत्तर मे वर्धमान महावीर ने समस्त अध्यात्म-शास्त्र ही कह डाला । कलाचार्य ने महाराज सिद्धार्थ से निवेदन किया- 'देव | मुझे जो कुछ पढ़ना था वह इस बालक से पढ लिया है, भला आज तक कभी कोई सरस्वती को भी पढा सका है । इस बालक की बुद्धि साक्षात् सरस्वती है, मैं इसे वन्दनाए ही कर सकता हू । पिता सिद्धार्थ तो पहले से ही बहुत कुछ समझे बैठे थे, वे मौन भाव से वर्धमान को साथ लेकर हाथी पर बैठे और घर को लौट माए ।
तानी उलझी सुलझने के लिये
महावीर के शरीर मे प्रवेश कर यौवन धन्य हो उठा, उनके सुगठित शरीर, वर्चस्वी प्राकृति, ऊर्जस्वी मन ग्रोजस्वी मुखाकृति और शरीर के रोम-रोम से फूटता पुरुषार्थ देख कर वैशाली का जनजन मुग्ध था ।
प्रत्येक माता-पुत्र के विवाहोत्सव की चाह को मन मे सजोए ही
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[ जन्म-कल्याणक