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वह चला गया हमे सवारी देकर । वह सासारिक खेल में उलझने के लिये प्राया था और उसी उलझन मे उलझ कर चला गया है ।'
वालक वर्धमान को पाकर प्रसन्न थे, परन्तु वे वर्धमान की वाणी का अर्थ नही समझ पाए । यह तो महावीर ही जानते थे कि उसने कपट करके अपने ससार भ्रमण को ही वढाया है ।
अनेकान्त का जन्म
महावीर जब भी एकान्त मे वैठते तो वे घण्टो आत्म-चिन्तन मे लीन रहते थे । एक दिन वे अपने बहुमजिले महल की वीच की मज़िल मे बैठ कर खिडकी मे से संसार की दशा को देखकर ग्रात्म-लीन हो रहे थे ।
तभी कुछ वालक नीचे खड़ी माता त्रिशला के पास पहुचे श्रीर उन्होने पूछा - 'मां जी | वर्धमान कहा है ?" माता त्रिगला ने उत्तर दिया - ' ऊपर हैं ।" वच्चे सब से ऊपर वाली मंजिल पर जा पहुचे । वहा महाराज सिद्धार्थ बैठे हुए थे । उन्होने उनसे पूछा - 'पिता जी । वर्धमान कहां है ।' उत्तर मिला नीचे है ।
बच्चे नीचे ग्रा रहे थे तभी उनकी दृष्टि बीच की मंजिल मे बैठे हुए महावीर पर पडी । वे महावीर के पास पहुचे, और बोले - माता जी ने कहा - 'आप ऊपर है ।' ऊपर बैठे हुए पिता जी ने कहा - 'ग्राप नीचे है ।' पर आप तो यहा वैठे हैं ।
चिन्तन शील महावीर की प्रतिभा ने कहा- 'माता जी ने ठोक ही कहा, क्योकि नीचे की मंजिल की अपेक्षा मैं ऊपर था और पिता जी ने भी ठीक ही कहा है- 'मैं ऊपर की मंजिल की अपेक्षा नीचे था । " ससार के प्रत्येक पदार्थ को सब अपनी-अपनी अपेक्षा मे ही देखते हैं, अत. जो किसी की दृष्टि में ऊपर है वही किमी की दृष्टि में नीचे है ।' इसी विचार के साथ महावीर के हृदय का प्रमुप्त अनेकान्तवाद जाग
उठा ।
वे बहुत देर से खिडकी मे बैठे हुए एक कौए को देख रहे थे, उन्होने मित्र - वर्ग मे पूछा - 'यह कौया किस रंग का है ? मित्रो का उत्तर था " काले रंग का" । महावीर वोले 'अस्थियो को दृष्टि से क्यो
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पञ्च- कल्याणक ]
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