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देवत्व ने मानवता के चरण पकड़े
___ महावीर खेल रहे थे इष्ट-मित्रो के साथ । तभी वहां एक हृष्ट-पुष्ट 'वालक भी आ गया । प्राकृति से तो वालक ही था, परन्तु उसका वलिष्ठ शरीर उसके बचपन को ढाप रहा था। पकड़ा-पकडाई का खेल खेला जा रहा था, अत. जो पकड मे आ जाता वह पकडनेवाले को पीठ पर चढाकर सवारी देता था। आगन्तुक दुष्ट वालक जानबूझ कर महावीर वर्षमान की पकड मे प्रा गया, अत: उसने वर्षमान को पीठ पर चढा लिया और जगल की ओर भागा । महावीर ने कहा-'अरे देवता कहा ले जा रहे हो ?" वह और तेज भागा।
'अच्छा तो यह वात है ?" कहते हुए वर्धमान ने उसकी पीठ को जोर से थपथपाते हुए कहा-'भागो भाई भागो | भागकर जाओगे कहा ? कहां तक भागोगे ? भला भगोड़ो को भी कभी सफलता मिली
भगोड़े को ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो उसकी पीठ पर किसी ने पर्वत ही रख दिया हो, महावीर की थपथपाहट उसे वज्र-प्रहार सी प्रतीत होने लगी। आखिरकार वह हाफने लगा, वह खड़ा हो गया। उसने महावीर से कहा-'वर्धमान मेरी पीठ से उतर जाओ।
वर्धमान उतर कर सामने खड़े हो गए और बोले-"अरे देवता - स्वरूप ! मुझे यहां क्यो ले पाए ?"
यह मुनते ही उसने हाथ जोडे अमा मांगी और कहा-'वर्धमान 'तुम सचमुच महावीर हो ! मैं देवता कहलाने योग्य कहा हूं? मैं तो दैत्यो से भी गया बीता हूं, क्या मुझे क्षमा नही करोगे ?
'क्षमा कैसी मित्र ? कण्ट तो तुम्हे ही हुआ है कि मुझे यहा तक “पीठ पर विठला कर लाए हो । तुम्हे कण्ट अवश्य हुआ होगा, क्षमा तो मुझे मांगनी चाहिए।
क्षमामूर्ति । मेरे प्रणाम स्वीकार करो ।' यह कह कर वह चल दिया। बालक भी डरते-डरते एव भागते-भागते वही आ पहुंचे। उन्होने वर्धमान को सकुशल देखा तो पूछा-'कहा गया वह दुष्ट ?'
वर्धमान का उत्तर था-'उसे दुप्ट कहने से हमे क्या लाभ होगा? .३०]
[जन्म-कल्याणक