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वीर की वीरता प्रत्यक्ष हो उठी
वर्धमान अव आठ वर्ष के हो चुके थे, परन्तु उनकी शारीरिक क्षमता मानो ग्रठारह वर्ष पार कर चुकी थी । उनकी शक्ति जवान हो चुकी थी ।
वर्धमान अभी बालक ही तो थे, बालको के साथ खेले बिना वचपन की सार्थकता कहा ? वे खेल रहे थे बच्चो के साथ । तभी वहाँ पर एक भयकर सर्प आ गया, सर्प की विशाल श्राकृति एव उसकी भयकर फूत्कारो से वालक भयभीत हो गए, कोई वृक्ष पर चढ गया, कोई भाग खड़ा हुआ, सर्प वर्धमान महावीर के सामने ग्राकर खड़ा हो गया ।
महावीर वर्धमान ने सर्प की ओर देखा और मुस्कराने लगे, तभी उन्होने बच्चो से कहा- 'अरे । सर्प से घबराते क्यो हो ? सर्प तो देवता होता है, देवता से डर कैसा ? बेचारा भटक कर यहा ग्रा गया है, हो सकता है हमारे साथ खेलना चाहता हो, तभी उन्होने दोनो हाथ आगे वढाए और सर्प को उठा लिया ।
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बालक चिल्लाने लगे - 'वर्धमान यह अजगर जैसा सर्प तुम्हे काट लेगा, छोड दो वर्धमान इसे । वर्धमान ग्रव भी मुस्करा रहे थे । उन्होने फिर कहा - मित्रो | जब हम सर्प को दुख नही दे रहे तो यह हमे दुख क्यो देगा ? दु.ख की सम्भावना उसी प्राणी से हो सकती है जिसे हम दुख देते हैं, अत: इससे डरो नही, बेचारा हाथो से छूटना चाहता है । तभी उन्होने उस सर्प को कुछ दूर ले जाकर छोड़ दिया । सर्प मुक्त हुआ, वह जेल से छूटे कैदी की तरह भागा, उसने सोचा- प्राण बचे सो लाखो पाए ।' आज बालको के हृदय ने पहली बार वर्धमान का वह नाम दोहराया जो नाम उन्हे इन्द्र ने दिया था - ''वर्धमान तुम तो महावीर हो, तुम्हे इतने बड़े सर्प से भी भय नही लगा ।" महावीर ने कहा - 'भय उसी को सताता है जो किसी से शत्रुता रखता है और अन्यो को भयभीत करना चाहता है । सर्प से हमारी कौन सी शत्रुता थी? हमने उसे डराने-धमकाने की भी कोई चेष्टा नही की, फिर हमे उससे डर क्यो लगता ?
पन्च - कल्याणक ]