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जाना, क्योकि वे केवल-ज्ञान की उपलब्धि का प्रोग करने में स्वतन्त्र होते हैं। वह समाधिस्थ रह कर मौन रूप से आयुष्य को पूर्ण करे या लोक-कल्याण के लिये प्रवृत्ति करे, यह उनकी अपनी इच्छा पर निर्भर करता है, किन्नु तीर्थकर ऐसा नहीं कर सकता। वह केवल-नान के बाद अभापक तथा मौन नहीं रहता । वह जब केवल-ज्ञान मे प्रकृति के विराट तत्त्वो को अनुभूति करता है तब विश्व के हित, मंगल तथा कल्याण के लिये उनका प्रचार एव प्रमार भी करता है। लोक-हित के लिये वह तीर्थ का प्रवर्तन करना है। तीर्थ के प्रवर्तन के बाद ही वह वस्तुत तीर्थङ्कर के रूप मे हमारे सामने आता है। प्रत्येक तीर्थकर पहले अरिहन्त बनता है और फिर तीर्थकर । तीर्थकर नाम-कर्म के उदय से तो द्रव्यत: तीर्थकर कहा जाता है, किन्तु तीर्थ की स्थापना करने पर ही महापुरुप वास्तविक तीर्थङ्कर कहलाते है।
प्रत्येक तीर्थकर अरिहन्त होता है, किन्तु प्रत्येक अरिहन्त तीर्थङ्कर नहीं होता। तीर्थकरत्व का मोक्ष के साथ कोई सम्बन्ध नही है।
अरिहन्त का अर्थ सक्षेप मे जरा समझ लेना चाहिये । अरिहन्त के तीन भाव है । प्रथम है :
१. परेहननारिहन्ता अर्थात् जो मोह आदि शत्रुओ का हनन फरता है, वह अरिहन्त होता है।
२ रजोहननादरिहन्ता-जो कमरज को दूर कर देता है वह अरि
- ३. रहस्याभावात्रा अरिहन्ता-जो अन्तराय कर्म को दूर करता है यह अरिहन्त है। ऐमा अरिहन्तत्व ही तीर्थङ्कर को मोक्ष तक पहुचाता है। यदि तीर्थरत्व मे मोक्ष देने की शक्ति होती तो फिर तीर्थङ्कर के रूप मे जन्म लेते ही उन्हे केवल-ज्ञान हो जाता, किन्तु ऐसा नहीं होता। तीर्थकर को साधना से सर्वप्रथम अरिहन्त-पद तक पहुंचना पड़ता है और तभी उसका तीर्थकरत्व सार्थक होता है। जैसे प्रत्येक प्राचार्य और उपाध्याय मावु होता है, किन्तु प्रत्येक सायु प्राचार्य व उपाध्याय नहीं होता। आत्म-कल्याण के लिये प्राचार्य व उपाध्याय होना कोई आवश्यक नहीं है, क्योकि ये सब पदविया और उपाधिया है। सामाजिक धरातल पर २]
[ केवल-ज्ञान-कल्याणक