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इनका अवश्य कुछ महत्त्व रहता है, किन्तु आत्मा के विकास के साथ इनका दूर का भी कोई सम्वन्ध नहीं है । ग्रात्मा का विकास तो साधुत्व के क्रमश विकास से होता है । साधुत्व का क्रमश: विकास ही गुण-स्थानो का आरोहण करता हुया तेरहवे गुण-स्थान मे पहुचे कर वीतरागता का रूप ले लेता है । वीतराग होने के लिये तीर्थङ्कर होना कोई ग्रावश्यक नही है किन्तु तीर्थङ्कर ग्रवत्र्य हो वीतराग होता है । यह गाग्वन नियम है । वीतराग के होने के बाद ही तीर्थङ्कर तीर्थ की स्थापना करते हैं ।
तीर्थङ्कर और अवतार में अन्तर
सनातन-धर्म के अवतार और जैन धर्म के तीर्थङ्कर के अवतरग तथा अविर्भाव का एक ही उद्देश्य रहता है, वह है जन-मानस मे धर्म की सस्थापना । जैसे कि गीता मे कहा है
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । श्रभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥ परिवाणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्म-संस्थापनार्थाय सम्भवानि युगे युगे ॥
उपर्युक्त श्लोकद्वय का भावार्थ पद्म मे कुछ इस प्रकार व्यक्त किया
गया है
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जब जब होइ धर्म की हानी, वाढह श्रसुर महा 'अभिमानी I तब तव घरि प्रभु मनुज सरीश, हहि सकल सुजन जन पीरा ।
इस धरती पर सनातन-धर्म की दृष्टि से भगवान के अवतार लेने का जो प्रयोजन होता है वही उद्देश्य जैन-धर्म के तीर्थङ्कर के जन्म लेने का है, किन्तु दोनो मे कुछ मौलिक भेद होता है, उद्देश्य की सिद्धि मे और कार्य करने की पद्धति मे
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सनातन धर्म मे भगवान स्वयं मानव के रूप में अवतार लेता है, जबकि जैन धर्म का तीर्थङ्कर एक विशिष्ट मानव ही होता है वह अपनी सावना से भगवत्ता को प्राप्त करता है ।
सनातन धर्म मे भगवान का अवतार जब यह देखता है कि उपदेश श्रोर नम्रता से दुष्ट अपनी दुष्टता से वाज नही ग्राता तो फिर वह सहार का मार्ग अपनाता है । वह इस धरती को आसुरी प्रभाव से मुक्त पञ्च-कल्याणक ]
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