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करने के लिये दुप्टो का संहार करता है, किन्तु जैन-धर्म का तीर्थङ्कर वीतराग होने से ऐसा नहीं करता।
- सनातन-धर्म का अवतार अपनी शरण में आनेवाले के लिये उसके कल्याण और मुक्ति का दावा करता है, किन्तु जैन-धर्म का तीर्थङ्कर किसी को कल्याण और मुक्ति की गारन्टी नहीं देता। वह किसी के कर्मों का भार अपने सिर पर नहीं लेता। वह तो सहज-रूप मे अहिंसा
और सत्य का उपदेश देता है। वह व्यक्त को मिथ्या-दृष्टि और असत् सस्कारो को बदलने का प्रयत्न करता है। वह अपने उद्देश्य मे सफल होता है या असफल इस ओर वह ध्यान नहीं देता, क्योकि किसी के उपदेश को ग्रहण करना या न करना यह व्यक्ति की अपनी पात्रता व अपात्रता पर निर्भर करता है। जिसका जैसा उपादान होता है उसमे वैसी ही परिणति होती है । तीर्थङ्कर कही भी वल और शक्ति का प्रयोग नहीं करते। सहार का प्राचरण तो क्या वे कभी इसका अनुमोदन भी नहीं करते। जैन-तीर्थकरो का यह दृढ विश्वास है कि सहार से प्राणी का कभी उद्धार नही होता और यह पृथ्वी भी पाप से कभी शून्य नही होती,क्योकि पाप के सस्कारो को साथ लेकर मरनेवाले प्राणी फिर नया शरीर लेकर इस धरती पर ही आ जाते हैं। इस तरह सस्कार रूपी बीज के नष्ट न होने से पापो की परम्परा सदैव बनी रहती है।
तीर्थबार सदैव अहिंसा और सत्य के माध्यम से ही लोक-मानस मे धर्म की प्रतिष्ठा करते हैं। बीतराग होने के बाद लोक-हित की भावना मे प्रेरित होकर वे धर्म-देशना देते है। वे विश्व का निर्माण करने के लिये पहले अपना निर्माण करते है । जो अपना निर्माण किये बिना ही दूसरो का उद्धार करने जाते हैं, वे अपने उद्देश्य में सफल तो होते ही नहीं, बल्कि वे निन्दा और उपहास के पात्र बनते है। यदि प्रत्येक व्यक्ति अपना ही सुधार कर ले तो जगत का उद्धार क्षणो मे हो जाये । शायद इसी लिए किसी ने कहा है- “If every man hooks his on reformation then how very easy to reform a nation?" तीर्थकर स्व-निर्माण के बाद ही परोपदेश मे प्रवृत्ति करते हैं । तोर्थडर का कार्य :
केवल-ज्ञान को उपलब्धि के बाद तीर्थर के लिये कुछ और ८४]
[ केवल-ज्ञात-कल्याण