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________________ उपलब्ध करना मेष नहीं होता। वे केवल अपनी उपलब्धि से ससार को लाभान्वित करने के लिये ही वाणी बोलते हैं। वाणी जीवन की एक महती शक्ति है। प्रात्मा और प्रकृति के रहस्योद्घाटन वाणी के द्वारा ही होते हैं। आत्मा द्वारा अनुभूत सत्य वाणी के द्वारा ही जनमानस तक पहुंचता है। केवल-ज्ञान वाणी के द्वारा ही श्रुतज्ञान का रूप, लेता है। विश्व के लिये श्रुत-ज्ञान ही उपयोगी होता है। हेय, नेय और उपादेय का परिज्ञान श्रुत-ज्ञान से ही होता है। जीव को इन्द्रियो की उपलब्धि मे श्रुतेन्द्रिय सव से वाद प्राप्त होती है। श्रुत का विषय शब्द है । वाणी भी शब्द रूपा है। शब्द ही श्रुत और वाणी के मिलन का माध्यम है। शव्द ही ब्रह्म को व्यक्त करता है। सनातन-धर्म मे इसीलिये शब्द को ब्रह्म कहा गया है। गव्द के विना आत्मा मूक है। जैन-धर्म ने इसे अभापक कहा है, अभाषक का जान उत्कृष्ट होने पर भी ससार के लिये अनुपयोगी होता है। जैसे सिद्ध भगवान का ज्ञान अनन्त होने पर भी लौकिक दृष्टि से कार्यकारी एव उपकारी नहीं है, क्योकि सिद्ध अभाषक होते हैं । अरिहन्त सशरीरी होने से भापक होते हैं। उनका ज्ञान वाणी के माध्यम से प्रस्फुटित होकर ससार के लिये उद्बोधक तथा प्रेरक वन जाता है। तीर्थङ्कर सर्वन तथा सर्वदर्शी होते है। उनके वचन सत्य तथा यथार्थ होते हैं, इसलिये उनके वाणी-प्रवाह को प्रवचन कहा जाता है । प्रकृष्ट वचन ही प्रवचन होता है। छनस्थ अर्थात् जिसमे अभी मानसिक विकार शेष है उनके भाषण को प्रवचन नहीं कहा जा सकता। यदि वे सर्वज की वाणी को आधार मानकर नि.गक भाव से तत्त्वो का प्रतिपादन करे तो उसे भी प्रवचन कहा जा सकता है, तीर्थकर की वाणी को इसीलिये निर्ग्रन्थ प्रवचन कहा जाता है, क्योकि उसमे रागद्वेष और पक्षपात नही होता । केवल विश्व-हित की भावना निहित रहती है। तीर्थरो के वचन असाम्प्रदायिक तथा सार्वभौम होते है। उनकी दृष्टि मे ऊच-नीच तथा छोटे-बडे का भेद-भाव नहीं होता। सूर्य अर्घ्य चढानेवाले और अपने ऊपर धूल फैकनेवाले को समान रूप से ही अपनी शक्तियो से लाभान्वित करता है । ठीक इसी तरह तीर्थङ्कर निन्दक और प्रशासक को समान दृष्टि से अपनी धर्म-वाणी से कृतार्थ करते हैं । इस सम्बन्ध मे शास्त्र पञ्च-कल्याणक ]
SR No.010168
Book TitleBhagavana Mahavira ke Panch Kalyanaka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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