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कुछ समय के लिये निवृत्त हो जाता है। उसके मन को कुछ आत्म-शान्ति उपलब्ध होती है । इस निमित्त से वह दान आदि के द्वारा अनेको सुकृतो का उपार्जन कर लेता है। बहुत सी दुष्प्रवृत्तियो से वच जाता है । तीर्थ-स्थानों मे सन्त-दर्शन, प्रभु-स्मरण, धर्म-कथा श्रवण तथा भजन-पाठ के द्वारा चित्त को कुछ शुद्धि भी हो जाती है, किन्तु एक वात कभी भूलनो नही चाहिये कि यह लाभ तभी मिल सकता है यदि तीर्थ स्थानो का वातावरण मात्त्विक तथा पवित्र हो और व्यक्ति की जान, दर्शन और चारित्र के प्रति पूरी निष्ठा हो। वाह्य तीर्थ तो निमित्त मात्र हैं। जीवन का सच्चा तीर्थ तो ज्ञान, दर्शन और चारित्र को आराधना ही है। भाव के बिना द्रव्य किसी को कभी तार नहीं सकता ! भूमि ने आज तक किसी को पवित्र नही बनाया, किन्तु आत्मा के सच्चे साधक अपनी सत्य-साधना से अपवित्र स्थान को भी पवित्र बना कर उसे तीर्थ बना देते हैं। इस संसार मे वाहर कही पवित्रता नही है। पवित्रता तो चारित्र का मौरभ है जो वाह्य जगत् मे बिखर कर उस के कण-कण को पवित्र कर देता है।
तीर्थकर देवों ने वस्तुत. रत्नत्रय की भावना को ही तीर्थ कहा है। साधु-साध्वी तथा श्रावक-श्राविका रत्नत्रय की साधना करने से ही तीर्थ स्वरूप माने जाते हैं।
__ भगवान महावीर ने अपने अध्यात्म-सघ के बल पर भारत मे धर्म-चक्र का प्रवत्तन किया। पाप ने अपने संघ को ग्यारह भागो मे विभक्त किया । प्रत्येक भाग को गण की संज्ञा दी और गण के प्रमुख को 'गण-धर' पद से विभूपित किया। भगवान ने समवसरण में तथा शरण में आनेवाले प्रथम ग्यारह पण्डितो को ही गणधर बनाया गया था।
साध्वी-संघ
देवी चन्दना ने भी भगवान के चरणो में सब से पहले दीक्षा ग्रहण की । भगवान ने उमे साध्वी सघ का नेतृत्व प्रदान किया। इस तरह भगबान महावीर ने देश भर मे धर्म की उत्क्रान्ति करने के लिये समता पर आधारित सर्वजन-हितकारी सार्वभौम सिद्धान्तो प्राध्यात्मिक तया पन्ध-कल्याणक ]
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