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ही सुरक्षित रखा। जैन ससार में ये ग्यारह गणधरो के नाम से प्रसिद्ध है।
भगवान महावीर ने अपने सव को 'तीर्थ' की मज्ञा दी । यह सज्ञा बडी ही महत्त्वपूर्ण है। एक ही विचार-सरणि के व्यक्तियो के समूह को सघ कहते है। संघ के पर्यायवाची और भी बहुत से शब्द है, किन्तु तीर्थङ्कर भगवान साधु-साध्वी तथा श्रावक-श्राविका के सघ को तीर्थ कहते हैं । यह नाम बड़ा ही पावन एव महत्तम रहस्य से परिपूर्ण है।
ससार मे ऐहिक स्वार्थों की सिद्धि तथा अन्य लोगो से सघर्ष कर के अपने अधिकारो को प्राप्त करने लिये अनेक प्रकार के संघो व दलो ग्रादि का निर्माण होता रहता है। वे सब सामाजिक जीवन से सम्बवित होने से लौकिक कहे जाते है, किन्तु तीर्थकर देव जिस धर्म-संघ की स्थापना करते हैं, वह लोकोत्तर होता है। वह आत्म-शुद्धि की साधना के लिये बनाया जाता है। उसमे ज्ञान, दर्शन और चरित्र की प्रधानता रहती है। यह सघ ससार से स्वय तरने और दूसरो को तारने के लिये होता है। इसलिये इसे 'तीर्थ' कहा जाता है, क्योकि जिस के द्वारा तरा जाये उसे ही तीर्थ कहते हैं।
द्रव्य और भाव की दृष्टि से तीर्थ दो प्रकार के होते है । जिन भूमि-खण्डो का सम्बन्ध महापुरुपो के जन्म, दीक्षा, साधना, ज्ञान तथा परिनिर्वाण आदि से जुड़ जाता है, वे स्थान भी 'तीर्थ' कहे जाते है, जैसे कि हस्तिनापुर, केसरिया नाथ जी, महावीर जी, राणकपुर पावापुरी, राजगृह, सम्मेद शिखर पालीताणा, शत्रुञ्जय, गिरिनार, गोमटेश्वर श्रमणवेलगोला, अयोध्या, वाराणसी, तथा उदयगिरि पादि, ये सब बाह्य तीर्थ हैं। जव मन मे आत्मा का सच्चा विश्वास तथा जीवन मे सच्चरित्र की ज्योति लेकर इन तीर्थो की यात्रा की जाती है तो फिर ये भूमि-खण्ड अवश्य ही तीर्थ बन जाते है।
सनातन जगत के भी अपने अनेको तीर्थ हैं। रामेश्वरम्, बद्रीनारायण, पुरी तथा द्वारका आदि ये सनातनियों के प्रसिद्ध धर्म-धाम है पौर उनके अनेको तीर्थ स्थान और भी है, किन्तु भक्ति-भावना और शुद्ध हृदय से यात्रा करने पर ही ये जीवन के लिये उपयोगी तथा प्रेरक बनते हैं। तीर्थ यात्रा के उद्देश्य से व्यक्ति संसार के विषय-प्रपञ्चो से [ ९४
{ केवल-ज्ञान-कल्याणक