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नही ?" वायुभूति यह निर्णय नही कर पा रहे थे कि "शरीर और जीव भिन्न-भिन्न है या एक ही है ?" व्यक्त स्वामी यह मानते थे कि "ब्रह्म ही सत्य है शेष सब मिथ्या है।" श्री सुधर्मा स्वामी की यह धारणा बनी हुई थी कि 'प्रत्येक प्राणी अपनी ही योनि मे उत्पन्न होता है, अर्थात् योनि-परिवर्तन नही होता। मण्डित जी यह मानते थे कि 'आत्मा एक अमूर्त तत्त्व है, उससे कर्म जैसे मूर्त द्रव्य का वन्ध नही हो सकता, जव वन्ध ही नही तो फिर उससे मुक्त होने का तो कोई प्रश्न ही नही है। मौर्यपुत्र जी का यह विश्वास बन गया था कि सख का अस्तित्व इसी धरातल पर है, उसका अस्तित्व इस ससार से परे अन्यत्र कही नही है। अकम्पित जी भी इसी तरह दुख, शोक, अशान्ति, रोग तथा दरिद्रता के रूप मे नरक इसी लोक मे ही मानते थे। अचलप्राता जी भी पुण्य-पाप के सम्बन्ध मे सदा विचलित रहते थे। मेतार्य स्वामी पूनर्जन्म के विषय मे सशय ग्रस्त थे और प्रभास स्वामी का हृदय मोक्ष के सम्बन्ध मे सदैव चलायमान रहता था। सभी को भगवान के धर्मदरबार मे अपनी शकायो तथा म्रान्नियो के युक्तियुक्त समाधान उपलब्ध हए और वे सभी एक मत होकर अत्यन्त श्रद्धामय तथा विनीत हृदय से भगवान के निर्ग्रन्थ धर्म मे दीक्षित हो गये ।
__उनके मन मे उपर्युक्त शकाए थी या नही । वे एक-एक करके भगवान के समवसरण मे गये या एकत्र होकर, यह तो चाहे निश्चित न हो, किन्तु एक वात सुनिश्चित है कि वे महावीर को अपना प्रतिद्वन्द्वी समझ कर उससे टक्कर लेने की भावना से और इन्द्रभूति जी को मुक्त कराने के सकल्प से वहां नही गये थे। वे सब महावीर के समवसरण मे केवल ज्ञान के मोती चुगने के लिये ही पहुचे थे और भगवान के चरण-भ्रमर वन कर उन्ही के हो गए थे।
समवसरण मे उपस्थित अनेक बहिनो व भाइयो ने साधु तथा श्रावक धर्म को ग्रहण किया। भगवान महावीर की यह धर्म-परिषद सफलता से अलकृत हो गई। धर्म-चक्र का प्रवर्तन करने के लिये तीर्थकर महावीर ने चतुर्विध तीर्थ की स्थापना की । वह वैशाख शुक्ला एकादशी का दिन सघ-स्थापना के रूप मे अमर हो गया।
भगवान महावीर ने इन ग्यारह धर्म-प्राचार्यों को प्राचार्य पद पर पञ्च-कल्याणक]
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