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नैतिक जीवन के उच्चतम आदर्शों का व्यापक अभियान प्रारम्भ कर दिया। देवताओं की गुलामी से छुटकारा :
भगवान महावीर का युग गहन अन्धकार से युक्त था। महावीर उस अन्धकार के लिये सूर्य बनकर आए थे। सारा देश मिथ्यात्व के अथाह सागर मे डूवा हुआ था। मनुप्य अपनी आत्म-शक्ति को भूलकर स्वर्ग के देवी-देवताओ को मनाने में लगा हुया था। भोग को ही जीवन का चरम-लक्ष्य मान लिया गया था। मानव का यह विश्वास बना दिया गया था कि स्वर्ग के देवता ही स्त्री, पुरुष, धन, विजय तथा प्रतिष्ठा चादि सब कुछ देने में समर्थ हैं, हिंसक यनो के मूल मे मानव की यही कुत्सित एव भ्रान्त धारणा काम कर रही थी। सर्वत्र हिसा का नगा नाच हो रहा था और दुख की बात यह है कि यह सब देवताओ के नाम पर हो रहा था जव कोई भी अपराध या भूल व्यक्ति की अपनी निर्वलता से होता है तो उसका प्रतिकार शीघ्र हो सकता है, किन्तु वुराई जव धर्म के नाम पर होने लगती है तब उसे हटाना वडा कठिन हो जाता है। महावीर के सामने विरोधो के कितने ही हिमालय खड़े थे। धर्म-गुरुयो, ब्राह्मणों, पण्डितो, पुरोहितो तया पुजारियो ने भोली-भाली जनता को अन्ध-विश्वासो के पिंजरे मे बन्दी वना रखा था। बड़े-बड़े राजा, मन्त्री, सेनापति, राजकीय कर्मचारी तथा बड़े-बड़े सेठ-साहूकार भी लौकिक एषणामो के दास वने हुए मिथ्यात्व के चक्र में फसे हुए थे। निम्न वर्ग का उत्थान :
उच्च-वर्ग निम्न-वर्ग का जीवन के किसी भी क्षेत्र मे विकास नहीं चाहता था, क्योकि ऐसा होने से उनका दम्भ और पोल-पट्टी नही चल सकती थी। इसलिये ब्राह्मण वेद और ईश्वर के घर की चावी सदैव अपनी जेब में ही डाल कर रखता था। ताकि उस घर मे कोई घुस कर वहा की वास्तविक स्थिति को जान न सके । यदि कोई साहस करके अत्याचारो के विरुद्ध जवान भी खोलता था तो उसे उत्पीडन का शिकार अथवा मरण का वरण करनेवाला बनना पड़ता था और उसे ९६]
[केवल-ज्ञान-कल्याणक