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नरक का भय दिखा कर चुप करा दिया जाता था। सामिष भोजन
और सुरापान मानव के आहार के प्रधान अग बन गये थे। मानव के जीवन मे अपराध की वृत्तिया तो स्वभाव से ही होती हैं, केवल धर्म ही उसका नियन्त्रण करता है, किन्तु जब धर्म ही अपराधो की छूट दे देवे तो फिर व्यक्ति को पाप करने से भय, सकोच तथा लज्जा कैसे हो सकती है। धर्म के प्रति गलत दृष्टि ही समाज के अध.पतन का कारण बन रही थी। भगवान महावीर मानव की दृष्टि का मोतिया विन्द उतारने के लिये ही इस धरती पर ठीक समय पर उतरे थे। उन्होने बढते हुए पाप और पाखण्ड से लोहा लेने के लिये एक तीर्थ के रूप में एक सुदृढ सगठन बना लिया था।
भगवान के सन्देश वाहक साधु-साध्वी भी प्राणो का मोह छोडकर सत्य का प्रचार करने के लिये निकल पड़े। उस समय यातायात के महान साधन नही थे । कच्चे रास्ते और नदी नाले पद-यात्री साधको के पगो को गति रोक देते थे। कही साधु-जीवन की मर्यादानो, नियमो तथा व्रतो का पालन करते हुए वे प्रचार के क्षेत्र मे आगे बढते थे, साधना के साथ-साथ प्रचार भी करते थे। सयम की परिधि मे रहते हुए वे यथाशक्ति जहां भी पहुंच सकते थे, पहुचते थे।
गण-तन्त्र के प्रमुख महाराज चेटक, मगधाधिपति राजा श्रेणिक चण्डप्रद्योतन और उदयन भी आप के भक्त बन गये थे। जैसे मूल को हाथ मे कर लेने पर उस वृक्ष का सर्वस्व अपने अधिकार मे या जाता है। इसी प्रकार राजा का हृदय-परिवर्तन होने पर प्रजा का मन सहज मे ही बदल जाता है। भगवान महावीर ने इसी सुनीति का अनुसरण किया। इससे भगवान को अपने सिद्धान्तो के प्रचार मे बडी सहायता मिली। कुछ उदयन जैसे राजानो ने भगवान के चरणो मे दीक्षा भी ग्रहण की, सयम के पथ पर चलकर भगवान के सिद्धान्तो का प्रचार भी किया।
भगवान महावीर का भ्रमण क्षेत्र अधिकतया विहार ही रहा । अापके पाचो कल्याणको का सम्बन्ध भी विहार से ही है।
भगवान महावीर ने अपने ज्ञान-केन्द्र से ज्ञान-रश्मिया प्रसारित करने के लिये अपने सन्देश वाहक भारत की चारो दिशामो मे दूर-दूर तक भेजे। वे हिंसा की श्यामल घटायो से तूफान बनकर टक्कराए पञ्च-कल्याणक |
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