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और धीरे-धीरे हिंसा के काले वादल छटने लगे।
भगवान के सिद्धान्त युगानुकुल, सार्वभौम तथा विश्वोपयोगी थे। थे तर्क, युक्ति तथा सत्य पर आधारित थे। उस समय वेदो के उज्ज्वल सिद्धान्तो को स्वार्थी लोग तोड़-मरोड कर तथा उन्हे विकृत रूप देकर उपस्थित कर रहे थे और सव से अधिक दुख और पाश्चर्य की बात यह थी कि ये घोर-पाप वेद और ईश्वर के नाम पर किया जा रहा था। भगवान ने जन-मन को अहिसा का वेद-सम्मत अर्थ वताया। आप में कहा कि हम वेदो के उन अर्थों को नही मानते जो ससार को उत्पीडन, यन्त्रणा और हिंसा का पाठ पढाते है और हम ऐसे भगवान को भी नहीं मानते जो वेदो के रूप मे हिंसा की वाणी बोलता हो । हम उन वेदो को मानते हे जो ब्रह्म विद्या के प्रादि स्रोत हैं और उस भगवान को भी स्वीकार करते हैं जो नित्य, शाश्वत, वीतराग ज्ञानमय वथा प्रानन्द स्वरूप है । जो कि सिद्ध है, वुद्ध है और सर्वथा मुक्त है। उन्होने जन-मन को देवो की दासता से मुक्त करते हुए कहा
धम्मो मगलमुक्किटु अहिंसा मजमो तवो।
देवावि तं नमसति जस्स धम्मे सया मणो॥ धर्म विश्व के सुख तथा मगल के लिये होता है, शास्त्र और भगवान मगलमय धर्म के सस्थापक तथा प्रेरक होते हैं । उसमे भगवान बनने के सशक्त उपाय है। यदि अात्मा अहिसा सयम और तप की साधना करे तो देवता भी उसके दास बन सकते है। जो हमे ऐहिक जीवन के क्षणिक सुख के लिये देवी देवताओ का दास बना दे वह कैसा शास्त्र ? बह कैसा धर्म ? और वह कैसा भगवान |
भगवान महावीर के क्रान्तिकारी विचारो ने हिंसा जगत मे एक भूकम्प पैदा कर दिया, ब्राह्मणो और पुरोहितो के सिंहासन हिल उठे। महावीर के विचारो को दबाने के लिये उन्होने भगवान महावीर को वेद-विरोधी तथा अनीश्वरवादी कहना प्रारम्भ कर दिया, किन्तु महावीर इस प्रकार के अपशब्दो तथा अनर्गल आरोपो से तनिक भी विचलित नही हुए, उन्होने अपना अभियान शुरू रखा।
महावीर ने अपना तीसरा प्रहार ईश्वर के कर्तृत्व-वाद पर किया। उन्होने स्पष्ट कहा कि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र मे ईश्वर को ही सर्वेसर्वा १८ ]
-ज्ञान-कल्याणक