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मान लेने पर व्यक्ति विल्कुल पगु बन जाता है। वह अपनी शक्तियो से अनभिज्ञ रह जाता है और उन शक्तियो का शोध व विकास नहीं कर पाता वह सदा दीन-हीन वना रहता है। सदा ईश्वर की कृपा पर जीने वाला गुलाम बन जाता है। व्यक्ति जव अपने कर्म का प्रेरक ईश्वर को मान लेता है तो फिर वह अपने आपको दोषो एव अपराधो को नहीं समझता ऐसी स्थिति में वह अपने कृतदोष एव अपराध का परिमार्जन करने के लिये तप व प्रायश्चित्त नहीं करता, अपितु ईश्वर को कोसना शुरु कर देता है।
"जो करता है वह ईश्वर ही करता है" भगवान महावीर ने मनुप्य की इस धारणा को भ्रान्ति मूलक कहा । महावीर ने मानव को अपार कर्तृत्व-शक्ति की अोर सकेत करते हुए कहा कि जो कुछ भी करता है वह मनुष्य ही करता है । मनुष्य अपनी शुभाशुभ कर्म प्रकृतियो से प्रेरित होकर अच्छे-बुरे कर्म करता रहता है और समय-समय पर अपने कृत कर्मो का गुभाशुभ फल सुख-दुख के रूप मे भोगता रहता है। यह कर्म प्रकृति अनादि है और जीव के साथ इसका सम्बन्ध भी अनादि है। ईश्वर इसका न रचयिता है और जीव के साथ इसका सयोजना कर्ता भी नहीं है।
प्रकृति जड है। इसलिये वह जीव को वान्धने मे असमर्थ है और ईश्वर विना किसी के साथ प्रशस्त और किसी के साथ अप्रशस्त प्रकृति जोडकर किसी को नरक एव पशु योनि में और किसी को मनुष्य और देव गति मे भेज नही सकता । क्योकि ऐसा करने से ईश्वर की पवित्र सत्ता मे राग-द्वपकी का उत्पन्न हो जाती है।
आवागमन का चक्र इस कर्म-सन्तति पर चलता रहता है। नरक, देव, मनुप्य तथा पशु रूप यह विराट् जगत इसी आवागमन पर टिका हुआ है। जीवन का दुख-सुख, सयोग-वियोग, हर्ष-गोक तथा जन्म-मरण का मूल कारण जीव और प्रकृति का सयोग ही है।
जातिवाद से उद्धार :
इस तरह भगवान महावीर ने दार्शनिक जगत से कर्ता रूप ईश्वर पञ्च-कल्याणक]
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