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वाले मैं, मेरापन, राग, द्वष आदि विकार तो स्वत: ही मिट जाते हैं।' सभी उपाधियां शरीर के 'मैं' के आसपास इकट्ठी होती है, अत: जो सर्वथा मिट जाता है, वह सभी उपाधियो से मुक्त हो जाता है। जब जन्ममरण नही होगा तो आवागमन समाप्त हो ही जायगा।२ इसलिये जो परमहस वीतराग पुरुप अपने आप को खो कर परमात्म-तत्त्व की उपलब्धि कर लेते है. वे निर्वाण होते ही सिद्धिगति नामक स्थान मे पहुंच कर अपने प्रात्मस्वरूप मे सदा के लिये स्थित हो जाते हैं. जहा से लौट कर वापिस नही पाना होता, वहा को स्थिति शिव (निरूपद्रव), अचल, अरुज, अनन्त, अक्षय, अव्यावाध और अपुनरावृत्ति है।४ निरुपद्रव इसलिये है कि शरीर के कारण सारे उपद्रव खडे होते हैं। जव गरीर वहां है ही नहीं तो उपद्रव कैसा ? अचल अवस्था मौन और शान्ति की सूचक है । जहा शरीर, इन्द्रिया, मन आदि होते हैं, वही हलचल होती है, इन्द्व होता है, सघर्ष होता है, जहा ये सव मूर्त पदार्थ नहीं होते, वहा सर्वथा शून्य, मौनभाव और प्रगाढ़ शान्ति होगी, किसी भी प्रकार के वैभाविक विकल्प मन मे नही उठेगे। वह अपने आप मे परिपूर्ण और स्थिर होगा। इसी निष्कम्प अवस्था को जैनदर्शन ने५ शैलेशी अवस्था बताया है। इस अवस्था मे भीतर सन्नाटा छा जाता है. जितनी भी हलचल होती है वह तो वाहर ही होती है। यहा बिल्कुल निर्वातता हो जाती है, तब केवल ज्ञानमात्र ही शेष रहता है, वही केवल जान है । न वहा ज्ञाता बचता है, न ज्ञेय पदार्थ, सिर्फ जान ही वच जाता है । वह अनन्त ज्ञान ही अपने मे दर्शन और चारित्र को समाविष्ट
१ निजितमदनाना वाक्कायमनोविकाररहितानाम् ।
विनिवृत्तपराशानामिहैव मोक्ष मुविहितानाम् ।।' २ यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परम मम । -गीता ३ 'अमत सति निव्वाणं पदमच्चुत'-सुत्तनिपात पारायणवग्ग ४ "सिवमयलमरु अमणतमक्खयमवावाह्मपुणरावत्तिसिद्धिगइ नामधेय
ठाण सपत्ताण"-नमोत्यूण (शक स्तव) पाठ ५ जया जोगे निरु भित्ता सेलेसि पडिवज्जड ।
तया कम्म खवित्ताण मिद्धि गच्छइ नीरो ।।-दर्शव० ४ अ. २४ गा. ६ निप्केवल ज्ञानम्'-निर्वाणोपनिषद्
पञ्च-कल्याणक]
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