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कर लेता है | निर्वाणप्राप्त व्यक्ति सर्वज्ञ और नि समय तो पहले से ही हो जाता है । फिर वहा केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवल सौख्य और केवलवीर्य (शक्ति) ये चार सादि अनन्त के रूप में विद्यमान रहते है, जिन्हे अनन्त चतुष्टय भी कहते है ।" शेष अस्तित्व, अमूर्तत्व और सप्रदेशत्व प्रादि जो गुण हैं, वे तो ग्रात्मा के निजी सामान्य गुण है ।
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ऐसे निर्वाण मे आत्मा की स्थिति कैसी होती है ? इसका पूर्णतया विवरण तो ग्रनन्तज्ञानी पुरुष ही प्रस्तुत कर सकते है, किन्तु साधारण साधक तो उन ज्ञानी पुरुषो के वचनो के आधार पर ही निर्वाण -जन्य अपरिमित प्रानन्द-स्वरूपावस्थान की मस्ती का वर्णन कर सकता है । गूगे के लिये गुड को मिठास का वर्णन करने जैसा ही प्राय यह वर्णन है । इसी कारण जैनदर्शन मे मोक्ष मे मुक्तात्मा प्रन्याबाध बताई गई है । तात्पर्य यह है कि निर्वाण हो जाने पर समस्त वाघाश्रो के प्रभाव के कारण आत्मा के निज गुण वहा पूर्णरूप से प्रगट हो जाते है । निर्वाण ग्रात्मा की परिपूर्ण विकास दशा है ।
परन्तु उसका कथन शब्दो से पूर्णतया नही हो सकता, न किसी इन्द्रिय के द्वारा उसे ग्रहण किया जा सकता है, इसीलिये उसे विविध दर्शन अनिर्वचनीय, अव्याकृत और अमूर्त होने के कारण ग्रग्राह्य कहते है ।
निर्वाण होने पर जो स्थान ग्रात्मा को स्वाभाविकतया ऊर्ध्वगमन के कारण प्राप्त होता है, उसे जैन शास्त्रो मे सिद्धशिला, गीता मे परमधाम, मोक्ष, मुक्तिस्थान आदि विविध नामो से पुकारा गया है ।
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१ विज्जदि केवलणाण केवलसोक्ख च, केवलवरिय | haratहित प्रत्थित्त सप्पदेसत्त | नियमसार १८१
२ व्ववाह प्रवद्वाण - (ग्रन्यावाध व्यावाधावर्जितमवस्थान जीवस्याऽसौ मोल । - श्रभि रा खंड १ पृ ४९१
३ सव्वे सरा नियट्टति, तक्का तत्व न विज्जइ, मइ तत्थ न गाहिया, उवमा न विज्जए, अरूवीसत्ता, प्रपयस्स पय णत्थि ।' आचा ११५।६।१७१
४ 'यतो वाचा निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह' - तैत्तरीय २१९
५ 'न चक्षुषा गृह्यते, नाऽपि वाचा --- मुडक
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[ निर्वाणन्त्र
-कल्याणक