SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 175
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वास्तव मे निर्वाण प्रात्मा के परिपूर्ण विकास का नाम है, इसमे कोई सन्देह नही। इसी कारण साधक के लिये जीवन का अन्तिम लक्ष्य, अन्तिम इष्ट और चरम प्राप्तव्य यदि कोई हो सकता है तो वह निर्वाण ही है । जहा उसे इतने अनन्त ज्ञान का प्रकाश प्राप्त होता है, वहा उसे सूर्य, चन्द्रमा आदि प्रकाशक पदार्थों की जरूरत नही रहती', न पृथ्वी, पानों, हवा आदि की ही जरूरत रहती है, क्योकि वहा सिर्फ ज्योतिर्मय चैतन्य है, शुद्ध प्रात्मद्रव्य है, शरीर का सर्वथा अभाव ही है। भगवान के निर्वाण के समय गौतम स्वामी को मनःस्थिति और केवलज्ञान की उपलब्धि भगवान महावीर से दूर बैठे गौतम स्वामी ने कार्तिक कृष्णा अमावस्या की रात को उनके निर्वाणोपलब्धि के समाचार सुने तो वे क्षणभर के लिये तो एकदम स्तब्ध से रह गए। अपने धर्मगुरु महावीर के वियोग के समाचार जानकर उनके हृदय को गहरा धक्का लगा। वे भाव-विह्वल होकर सिसकिया भरने लगे और कहने लगे "प्रभो ! निर्वाण-दिवस का समय निकट जान कर आपने मुझे किस कारण दूर भेजा ? क्या मैं आपके निर्वाण मे वाधक बनता ? हिस्सा वटा लेता? इतने समय तक मैं आपकी सेवा करता रहा. फिर भी अन्तिम समय मे आपने मुझे दर्शनो से वचित क्यो रखा ? अगर इस अकिंचन को भी मोक्ष मे साथ ले जाते तो क्या वहा जगह सकडी हो जाती ? प्रभो! कुछ समझ मे नही आता कि आपने अपने सेवक और प्रिय शिष्य को अन्तिम समय मे अपनी पावन दृष्टि से अोझल क्यो कर दिया? मैंने ऐसा कौन सा अपराध किया था ? जिसमे आपने मझे अपने पास नही रहने दिया। अव मुझे 'गोयम ।' कह कर कौन सम्बोधन १ न तद् भासयते सूर्यो, न शशाङ्को न पावक । यद् गत्वा न निवर्तन्ते, तद्धाम परम मम ||-- गीता १५६ २ जत्य आपो न पुढवी, तेजो वायो न गाधति । न तत्य सुक्का जोवति मादिच्चो न पकासति । न तत्य चदिमा भाति, तमो तत्य न विज्जति । उदान० ११० ३ कल्पसूत्र सूत्र १२३, कल्पसून स० १२६, कल्पसूत्र सू० १४६ पञ्च-कल्याणक] [१४५
SR No.010168
Book TitleBhagavana Mahavira ke Panch Kalyanaka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy