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________________ अवसपिणी काल के चौथे पारे की समाप्ति और पाचवे पारे का प्रारम्भ होने मे तीन साल साढे आठ महीने वाकी रहते थे। उस समय चन्द्र नामक सवत्सर चल रहा था, प्रीतिवर्धन नाम का मास था. अग्नि वेश नामक दिन था, देवानन्दा नामक रात्रि थी, उस रात्रि में अयं नामक लव था, सर्वार्थ सिद्ध नामक मुहूर्त था और स्वाति नक्षत्र का चन्द्र के साथ योग था। ठीक इसी समय श्रमण भगवान महावीर निर्वाणपद को प्राप्त हुए, कायस्थिति और भवस्थिति से सर्वथा मुक्त हुए, समार को त्याग कर पुनरागमन रहित सिद्धि-गति को प्राप्त हुए । जन्म-जरा-मृत्यु के बन्धनो से मुक्त हुए, परमार्थ को साध कर सिद्ध हुए, तत्त्वार्थ को जान कर वुद्ध हुए, समस्त कर्मसमूह से सर्वथा मुक्त हुए, चार अघाति कर्म जो गेप रहे थे, उनका भी सर्वथा क्षय हो गया। वे शारीरिक तथा मानसिक समस्त दु खो से रहित हो गए, किसी भी प्रकार का सन्ताप न रहने से परिनिर्वाण अर्थात् परमशान्ति को प्राप्त हुए। समार के इतिहास मे कार्तिक कृष्णा अमावस्या का दिन सदैव सस्मरणीय रहेगा। इस दिन वह ज्ञानमूर्य विश्व-वत्सल प्रभु महावीर हममे अलग होकर मुक्तिलोक मे जा विराजे। आज हम उनके साक्षात् तो दर्शन नही कर सकते, परन्तु उनके द्वारा धर्म-प्रवचन के रूप मे प्रसारित ज्ञान-किरणे आज भी हमारे सामने प्रकाशमान हैं। यदि हम छोटे से वाक्य मे कहे तो जीवन का चरम लक्ष्य है निर्वाण प्राप्त करना । इसे ही प्राप्त करने के लिये साधक का प्रत्येक कदम, प्रत्येक प्रवृत्ति एव प्रतिक्षण पुरुषार्थ होना चाहिए । निर्वाण-प्राप्ति ही साधक की जीवन-दृष्टि होनी चाहिए, निर्वाण ही उसका इष्ट होना चाहिए। उसी की ओर वढते रहना साधक का कर्तव्य है। निर्वाण क्या है ? विविध दार्शनिक ग्रन्थो एव शास्त्रो में निर्वाण शब्द के लिये मुक्ति, मोक्ष, निर्याण, मिद्धि, सिद्धिगति परमात्मलीनता, पूर्णता अहंशून्यता आदि विविध नामो का प्रयोग किया गया है। १४०] [ निर्वाण-कल्याणक
SR No.010168
Book TitleBhagavana Mahavira ke Panch Kalyanaka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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