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क्यो नही हुमा ? इस पर भगवान महावीर ने केवल-ज्ञान की अनुपलब्धि का कारण बताते हुए कहा था "गौतम | चिरकाल से तू मेरे स्नेह मे वधा हुआ है । चिरकाल से तू मेरी प्रशसा करता रहा है, सेवा करता रहा है, मेरे साथ दीर्घकाल से परिचित रहा है, मेरा अनुसरण भी करता रहा है। देव और मनुष्य के अनेक भवो (जन्मो) मे हम साथ-साथ रहे है और यहा से आयुष्य पूर्ण करके आगे भी हम दोनो एक ही स्थान पर पहुचेंगे।'
इसी अपेक्षा से भगवान महावीर ने अपनी अहैतुकी कृपा-दृष्टि से 'मुत्ताण मोयगाण" के अपने परम विरुद के कारण निष्पक्ष वात्सल्यवश चिन्तन किया कि-'अव मेरे निर्वाण का समय निकट आता जा रहा है । मेरे पट्ट शिष्य इन्द्रभूति गौतम का मेरे प्रति स्नेहभाव अभी तक छूटा नही है । अगर मेरे निर्वाण के बाद भी इसका प्रशस्त मोहभाव नही छूटा तो इसे केवलज्ञान उत्पन्न नही होगा।" इस कारण से पूर्व ही भगवान ने श्री गौतम स्वामी को एक सन्निकटवर्ती ग्राम मे देवशर्मा ब्राह्मण को प्रतिबोध देने के लिये भेज दिया। वे शीघ्र ही लौट कर अपने धर्मगुरु महावीर के चरणो मे पहुचना चाहते थे किन्तु सन्ध्या हो जाने से वही पर रुक गए। भगवान महावीर का परिनिर्वाण
इस प्रकार श्रमण भगवान महावीर निर्वाण के पूर्व सभी प्रकार के बन्धनो से मुक्त होने की तीव्र दशा मे थे, परम शुक्लव्यान मे वे मग्न हो गए । निर्जल षष्ठभक्त (बेले) का तप चल रहा था, कार्तिक कृष्णा अमावस्या की रात्रि का तीसरा पहर व्यतीत हो चुका था । भगवान पद्मासन से वैठे हुए एक प्रकार से विदा लेते हए १६ प्रहर तक अखण्ड एव अविच्छिन्न रूप से जनता को अपनी अन्तिम थाती प्रदान करने के रूप मे अपनी वाग्धारा प्रवाहित कर रहे थे। उस समय की उस देशना मे इतना चमत्कार था, इतना आकर्पण था कि उससे प्रभावित होकर पौषधोपवास स्थित १८ गण राजा तथा अन्य उपस्थित श्रोतागण १६ प्रहर तक उसे दत्तचित्त हो कर सुनते ही रहे ।
१ कल्पसूत्र सू० १२६, २ उत्तराध्ययन सूत्र, भगवतीसूत्र शतक १४ उद्दे ०७ पञ्च-कल्याणक]
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