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मे वाहिर ही रक्वा। तदनन्तर भगवान महावीर वहा से चल दिये। भगवान महावीर को सर्वथा स्वस्थ वहा से जाते देखकर आस-पास के लोग भी सर्प के निकट आ गए और बदला लेने की भावना से वे सर्पराज पर ककर, पत्थर मारने लगे, परन्तु प्रायश्चित्त की भावना से सर्पराज सहिष्णु वन कर उन प्रहारो को समतापूर्वक सहन करने लगा। कुछ भावुक लोग सर्पराज की सहिष्णुता से प्रभावित होकर दूध, शक्कर आदि से उस की पूजा मे जुट गए । वहा पर मोठा आ जाने के कारण चीटियो का आगमन भी प्रारम्भ हो गया। वे चीटिया सर्पराज के शरीर को बुरी तरह से काटने लगी, परन्तु सर्पराज जरा भी विक्षुब्ध नही हुआ। आयु की समाप्ति होने पर एक दिन इसी शान्त भाव से जीवन-लीला समाप्त करके नागराज सहस्रार नामक पाठवें देवलोक मे जा विराजमान हुए। इस तरह महामहिम भगवान महावीर ने एक सर्प के जीवन का उद्धार करके विप को अमृत बनाने का एक ऐसा ऐतिहासिक आदर्श उपस्थित किया जो काल की अनन्त घाटियो को पार करने पर भी कभी विस्मृत नही हो सकेगा। नय्या के खिवय्या :
नागराज चण्डकौशिक का उद्धार करने के पश्चात् भ्रमण करते हुए भगवान महावीर श्वेताम्बिका नगरी की ओर पधार रहे थे। रास्ते मे गङ्गा नदी पडती थी। वहा यात्रियो को नौका का उपयोग करना पडता था। भगवान महावीर भी अन्य यात्रियो के साथ नौका मे विराजमान हो गए। नाविको ने नौका चलानी प्रारम्भ ही की थी कि उसी समय उल्लू की आवाज आई। आवाज सुनकर शकुन-गास्त्र के जाननेवाले एक यात्री ने कहा--"आज खैर नही है, उल्लू की आवाज़ किसी भीषण उपद्रव के होने की सूचना दे रही है। पर ये (भगवान महावीर की ओर सकेत करके) महापुरुष बैठे है, सम्भव है, इनकी कृपा से बच जाए, अन्यथा मुश्किल है। पाच मिण्ट भी नहीं गुजरे होगे कि आधी . चलने लगी देखते ही देखते नौका भंवर मे आ गई। इस अाकस्मिक उपद्रव से सब कापने लगे।
१ "अद्धमामस्म कालगतो सहस्सारे उववन्नो"
-आव० ० १ पृ० २७९
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[ दीक्षा-कल्याणक