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का अभाव था, अत दश-स्थान से दुग्ध प्रवाहित हुआ का यह अभिप्राय माना जा सकता है कि उनके शरीर से शुक्ललेश्या के श्वेत परमाणु प्रवाहित हुए और उनके स्पर्श से 'नाग' भी श्वेत हो गया, अर्थात् उमकी भावनाए भी विशुह हो गई । परिणाम स्वरूप क्रोधावेश मे अाकर उसने फिर इतने जोर से डक मारा कि रक्त की धारा प्रवाहित्त होने लगी।
भगवान की सौम्य और शान्त मुखमुद्रा मे कोई अन्तर नही पाया चेहरे पर पहले की भाति मुस्कराहट अठखेलिया कर रही थी । नागराज का अभिमान गल गया। वह शिथिल होकर प्रभु-चरणो पर फन रख कर गान्त हो गया।
नागराज की यह दशा देखकर करुणासागर भगवान ने ध्यान खोला और वे मुस्कराते हुए बोले-"नागराज । जागो, क्यो व्यर्थ मे क्रोध की आग मे जल रहे हो । इस क्रोधाग्नि ने तो पहले ही तुम्हारा बहुत नुकसान कर रक्खा है। अपने अतीत को देखो, पहले तुम मनुष्य थे, पर क्रोधाग्नि से जलकर सर्प बन गए हो। अव तो होश करो, अपने को सभाली।'
भगवान के इन वचनों ने धधकनी अग्निज्वाला पर जल डालने जैसा काम किया। नागराज का क्रोध शान्त हो गया और उसने एक अलौकिक शान्ति अनभव की। अन्तर से स्फूरणा का स्रोत फूट पडा-"ऐसे शान्त वचन सुने हुए है" । चिन्तन मे गभीरता पाने पर जाति-स्मरण ज्ञान की ज्योति जगमगाने लगी। जाति-स्मरण का अर्थ है-अपने पिछले जन्मो का परिवोध । वस फिर क्या था, पूर्व जीवन के चलचित्र पाखो के आगे नाचने लगे, क्रोध के दुष्परिणाम कितने भयकर होते हैं, यह समझने मे कुछ भी देर नही लगी। अपने ही जान-चक्षुप्रो से अपने अतीत को देखकर नागराज बडा लज्जित एव स्विन्न हुआ। अपने कृतकर्म के लिये पश्चात्ताप करते हुए नागराज ने मूक भाषा मे भगवान से क्षमा मागी। इसके बाद अहिंसा भगवती के चरणो मे अपने को समर्पित कर दिया। यही कारण है कि भविष्य मे किमी को काटा नही सताया नहीं । अन्त मे अपने जीवन से सर्वथा उदासीन होकर अपना मुख विल मे कर लिया, शेष सारा धड विल पञ्चकल्याणक )
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