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कर मर गया । शिष्य ने उसे देखा तो अपने गुरु में प्रायचित ने को कहा । यह तो पहले ही मरा पत्र था।" यह कर गुरु यि की बात पर कोई ध्यान नहीं दिया | शिव ने सायकानीन प्रणि करते समय पुन कहा- 'भेण्ठन के मर जाने का बाकी प्राचिन में लेना चाहिए ।' शिष्य के बारबार कहने से गुरु को को गया । धान्य हो के शिष्य को मारने दौटे और थोडी ही दूरी पर एक स्वभ से टकरा कर उनका प्राणान्त हो गया ।
वह तपस्वी वहां से मरकर बनकर नामक बाथम के कुलपति की धर्मपत्नी के गर्भ मे बालक रूप से पैदा हुए। जन्म होने पर बालक का नाम कौशिक वा गया। यह (न) प्रकृति का था, फलत चण्डकौशिक के नाम से प्रसिद्ध हो गया । वा होने पर कुलपति बना दिया गया । इसे प्राथम के वृक्षों में वटा प्यार था । किसी को फल-पुष्प भी नहीं तोड़ने देता था। एक बार कुछ राजकुमार इकट्ठे होकर प्राश्रम के फल फूल तोडने लगे तो वह क्रोधित होकर कुल्हाड़े से उन्हें मारने दौड़ा । रास्ते मे कूप में गिर जाने से उसकी मृत्यु हो गई और वह ग्राश्रम मे सर्प दन गया । लोग भी उसे चण्डकौशिक हो कहने लगे । इसका विष बड़ा भयकर था । आश्रम के बहुत से तापम उसने विष मे जला दिए । ग्रवशिष्ट तापस भाग गए। यवम उजड़ गया । इसी चण्डकौशिक का उद्धार करने के लिये प्रभु महावीर इधर आए और आते ही ये उसके दिल के पास ध्यान लगाकर बढ़े हो
गए ।
सर्वराज को जब मनुष्य की गन्ध हाई तो यह तत्काल बिल से बाहिर ग्राया और इसने साते ही पूरे धावेश के साथ प्रभु के चरणों पर डक दे मारा, परन्तु प्रभु महावीर पर उसका कोई प्रभाव नही हुआ और वे शान्त भाव से ध्यान में खड़े रहे । नागराज ने इसे
अपना अपमान समझा ।
यह भी कहा गया है कि भगवान महावीर के शरीर से रक्तवारा के स्थान पर दुग्ध की वारा प्रवाहित हुई थी । सम्भव है इसे आज वा बुद्धिवादी स्वीकार न परे । ऐसे बुद्धिवादियों के यह भी कहा जा सकता है कि भगवान महावीर के
परितोष के लिये शरीर मे कषायों
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[ दीक्षा- कल्याणर