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________________ उन्हे सर्वथा असह्य था, इसीलिये इन्होने मोराक सन्निवेश मे प्रस्थान करने मे जरा भी विलम्ब नहीं किया। प्राधा वस्त्र भी गिर गया : भगवान जा रहे थे, मार्ग मे सुवर्णवालुका नदो पर उनका दीक्षाकालीन देवदूष्य काटो मे उलझ कर गिर गया। इस समय प्रभु को दीक्षित हुए १३ महीने हो चुके थे। इस तरह तेरह महीने प्रभु वस्त्रधारी रहे, इसके पश्चात् ये अचेल अर्थात् वस्त्र-रहित हो गये। वे इस स्वल्प से साधनाकाल मे ही विदेह हो गए थे, देह का भान भूल से गए थे। आत्म-अवस्थित के लिये देह का ज्ञान कहा रह जाता है। जव देह का ज्ञान नही तो वस्त्र की क्या आवश्यकता थो ? वस्त्र देह के लिये है. देह वस्त्रो के लिये नही, अत अब न देह का ध्यान था और न वस्त्र का। चण्डकौशिक सर्प का जागरण : भगवान महावीर उत्तर वाचाला नगरी की ओर जा रहे थे। मार्ग मे कुछ व्यक्ति मिले तो उन्होने कहा- आगे चल कर एक दृष्टिविष भयकर सर्प रहता है, जिसका विप देखने मात्र से मनुष्य को जला देता है। उसकी विपैली फुफकारो से तो आकाश के पक्षी भी धराशायी हो जाते है। इसके विष ने वृक्षो को भी मुखादिया है। सर्प का नाम चण्ड कोशिक है, अत आप यह माग छोड दें। दूसरे मार्ग से चले जाए।" परन्तु भगवान ने लोगो की इस बात को सुनकर भी अनसुना कर दिया और वे अपनी मस्ती से उसी रास्ते पर ही बढते चले गए। सच्चे महा-पुरुष की यही विशेषता होती है कि उसकी करुणादृष्टि मानव तक सीमित नही रहती, उनकी आत्मीयता जीव मात्र तक विस्तृत हो जाती है, इसीलिये भगवान महावीर ने नागराज चण्डकौशिक के उद्धार का निश्चय किया। चण्डकौशिक : एक परिचय : एक तपस्वी अपने शिष्य को साथ लेकर भिक्षा को जा रहे थे । शिष्य गुरु के पीछे था। अचानक एक मेण्ढक गुरु के पाव के नीचे दव पञ्चकल्याणक ] [ ५९
SR No.010168
Book TitleBhagavana Mahavira ke Panch Kalyanaka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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