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भगवान महावीर के पावन मुखारविन्द से यह फलादेश सुनकर निमित्तज्ञ प्रानन्दविभोर हो उठा। शूलपाणि-यक्ष का उपद्रव शान्त हो जाने से अस्यिग्राम के घर-घर मे हर्प छा गया। भगवान महावीर ने यही पर प्रथम चातुर्माम किया और इस चातुर्मास मे भगवान ने पन्द्रहपन्द्रह दिनो के आठ बार उपवास किए । अच्छन्दक पर उपकार :
अस्थिकग्राम का चातुर्माम समाप्त करके भगवान ने मार्गशीर्ष प्रतिपदा को वहा से विहार कर दिया और वे मोराक सन्निवेश मे पहुच कर वहा के एक उद्यान में विराजमान हो गए। यहा अच्छन्दक नाम का एक ज्योनिपो रहता था। लोगो मे इसका वडा अच्छा प्रभाव था, इसी प्रभाव से इमकी और इसके परिवार को आजीविका चलती थी, परन्तु जब लोगो ने श्रमण भगवान महावीर का विलक्षण त्यागवैराग्य देखा ता सब ने प्रभु-चरण को शरण ग्रहण की। अधिक से अधिक जनता प्रभु के चरणो मे उपस्थित होने लगी।
प्रभु की सेवा मे रहनेवाला सिद्धार्थ नामक देव सव आगन्तुक व्यक्तियो की मनोकामनाए पूर्ण कर देता था। फलत प्रभु का प्रभाव व्यापक होता गया और अच्छन्दक ज्योतिषी का प्रभाव घटता चला गया । अपने गिरते हुए प्रभाव को देख कर अच्छन्दक वडा दुखी हुआ और कोई उपाय न देख कर अन्त में वह सीधा भगवान के चरणो मे पाया, दीन स्वर मे अभ्यर्थना करते हुए कहने लगा
"प्रभो | पाप तो तेजस्वी महापुरुप हैं और मैं ठहरा एक पामर अन्नकोट । भगवन् । अाज एक अन्तर्वेदना लेकर आपकी शरण मे आया है। कहते हुए लज्जा भी ग्राती है, परन्तु कहे विना गुजारा भी नही है। आप के इवर पाने से मेरी प्राजीविका समाप्त हो रही है, अत यदि आप मुझ पर दया करते हुए कही अन्यत्र पधार जाए तो मैं और मेरा परिवार जीवित रह सकेगे, अन्यथा सब को भूखे ही मरना होगा।"
अच्छन्दक की अन्तर्वेदना सुन कर करुणावतार भगवान महावीर उसी समय वहा मे चल दिए। इनके कारण किसी को कष्ट हो यह
[ दीक्षा-कल्याणक