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________________ सहृदयता के अमर प्रतिनिधि भगवान महावीर कहीं पर ध्यानस्थ खड़े थे, वहां पर एक वृद्ध ब्राह्मण प्राया, यह विपत्ति का मारा हुअा, गरीबी का सताया हुआ और दरिद्रता से बुरी तरह से पिसा हुआ था । वह भगवान महावीर का साक्षात्कार करते ही आनन्द-विभोर हो उठा और उनके चरणों का स्पर्श करके कहने लगा-"भगवन् ! मैं बहुत दिनो से आपको ढूढ रहा था, पास-पास के गावों और जंगलो को छान मारा, प्राज दर्शन पाकर कृत-कृत्य हो गया हूं। मुझे पता चला है कि आपने साधु बनने से पूर्व सावन की झड़ी की तरह स्वर्ण-मुद्राए वरसाई , किन्तु मैं भाग्यहीन खाली ही रहा । आप तो ब्रह्मनानी महापुरुप हैं, मेरी निर्धनता गरीठी और दयनीय दशा से आप अपरिचित नहीं हैं। मेरेलिये तो आप कल्पवृक्ष है, आपका शरणागत हू प्रभो ! इस दीन ब्राह्मण पर भी कुछ कृपा कीजिए। अनेकों वार गिड़गिड़ाने पर भी जब भगवान मौन रहे, उन्होने कोई उत्तर नहीं दिया तो उस ब्राह्मण की आशाओ के सव दीप बस गए । अन्त मे वह सिसकियां भरता हुआ रोने लगा और भगवान के चरणो से लिपट गया। ब्राह्मण की दयनीय स्थिति देख कर करुणासागर भगवान महावीर ध्यान खोलकर बोले __ "देवानुप्रिय ! तुम्हारी दयनीय दशा तो मैं स्वय देख रहा हूं, परन्तु, अव तो मैं एक अकिंचन भिक्षु हूं, अर्थ-सम्पदा की तेरी कामना इस समय कैसे पूर्ण कर सकता हू ?" । यह सुनकर ब्राह्मण ने दीनतापूर्ण शब्दो मे पुनः कहा-"भगवन् । आप तो अनन्त बली है, जो चाहे कर सकते है। चाहे तो एक क्षण में रत्नों को वर्षा करदे और मिट्टी को स्वर्ण बना डाले। ब्राह्मण की चापलूसी का निराकरण करते हुए भगवान बोले "भद्र | में जादूगर नही हू, यात्म-साधना का विशुद्ध साधक हूं, सोनेचादी के टुकड़ो को लिये नीलाम की जानेवाली मेरी साधना नही है। • यह सुनते ही ब्राह्मण की आखो के आगे अन्धेरा सा छा गया । भगवान के घर जाकर भी अपने को खाली रहता देखकर वह पुन पञ्च-कल्याणक] [४५
SR No.010168
Book TitleBhagavana Mahavira ke Panch Kalyanaka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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