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प्रश्न हो सकता है कि भगवान महावीर मति, श्रुति, अवधि और मन पर्यवज्ञान इन चारो ज्ञानो के धारक थे, इन के लिये धर्म का कोई रहस्य अनजाना नही था, ऐसी दशा मे उन्होंने जन सम्पर्क से निवृत्ति क्यो की ? सयम क्षेत्र मे पदार्पण करते ही धर्म देशना की पावन गंगा प्रवाहित न करके बारह वर्ष के लम्बे काल के लिये वे मौन साधना के क्षेत्र मे क्यो उतरे ?
परन्तु भगवान महावीर के जीवन-शास्त्र का जब हम गम्भीरता से अध्ययन करते है तो विना किसी झिझक के वहा जा सकता है कि भगवान महावीर अपने जीवन को ही एक प्रयोगशाला बना कर जीवन-निर्माण के सभी सिद्धान्तो को उसमें परखना चाहते थे, क्योकि जव तक किसी बात को पहले अपने जीवन की प्रयोगशाला मे न परखा जाए तब तक उसका अन्यत्र सफल होना अनिश्चित होता है ।
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दूसरी बात कथनी और करनी की विषमता को भगवान महावीर अपने निकट नही आने देना चाहते थे। कहने से पहले कथनीय तत्त्व 7 को जीवन में लाकर परखने की उनकी सुदृढ आस्था थी । इसीलिये दीर्घदर्शी भगवान महावीर ने सबसे पहले आत्म-सुधार का, केवलज्ञान प्राप्त करने के लिये अपने विकारो को नष्ट करने का महाव्रत अमीकार किया, जोकि उनके मंगलमय व्यक्तित्व के सर्वथा अनुरूप ही था । यदि आज के समाज-सुधारक भगवान महावीर के इस अनूठे प्रदर्श को अपना, दूसरो को समझाने से पहले अपने आपको समझाने की कोशिश करे तथा कथनी और करनी मे विषमता न रहने दें तो बहुत शीघ्र ही भारतीय जनता का मङ्गल हो सकता है ।"
जन्मभूमि से प्रस्थान
अब भगवान महावीर ने ज्ञातखण्ड नामक उद्यान से प्रस्थान कर दिया । यह विहार का दृश्य भी कुछ निराला ही था । उस समय सबके नेत्र प्रेमाश्रु से भीग गए थे । जाते हुए भगवान को वे तब तब तक देखते रहे जब तक कि भगवान महावीर उनकी श्राखो से मोझल न हो गए । वापिस जाते हुए सभी दर्शको को यही अनुभव हो रहा था कि मानो आज हमारा सर्वस्व किसी ने छीन लिया हो ।
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[ दीक्षा- कल्याणक