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________________ महावीर ने जिस समय दीक्षा ग्रहण की उसी समय-उन्हे मनःपर्यव-ज्ञान की उपलब्धि भी हो गई थी। इस ज्ञान के प्रभाव से भगवान साधु बनते ही जीवो के भावो को जानने लगे थे। किसी ने ठीक ही कहा है कि 'पुण्यगील जीव का अपना कुछ निराला ही प्रभाव होता है, उसके पास समस्त ऋद्धि-सिद्धियां अपने आप ही भागी चली आती हैं। राजकुमार से भिक्षु भगवान महावीर जिस समय दीक्षा-पाठ पढ़ रहे थे उस समय का दृश्य बडा ही रोमाञ्चकारी था। सव अनुभव कर रहे थे कि कुछ क्षण पहले जो राजकुमार थे वे अब भिक्षु बन गये हैं। जिस शरीर पर राजसी वस्त्र और आभूषण शोभा पा रहे थे और जो शरीर चकाचौंध कर देनेवाली हीरे-जवाहरात की दिव्य-प्रभा से स्वर्गपुरी के देवशरीरो को भी निस्तेज बना रहा था, उस शरीर पर अव आभूषण नाम की कोई वस्तु नही रही है, केवल इन्द्रप्रदत्त देवदूष्य वस्त्र कन्धे पर डाला हुआ दिखाई दे रहा है । भले ही प्रभु का मुखमण्डल त्याग एव वैराग्य की कुछ निराली ही छटा दिखला रहा था, परन्तु भगवान महावीर को शिरोमुण्डित वेष मे देखकर इनके वडे भाई नरेश नन्दीवर्धन तथा अन्य पारिवारिक लोग विह्वल से हो उठे, सब का दिल भर आया, अांखे सजल हो गई, सबके सब भावी विरह-जन्य पीडा से परिपीडित हो 'गए, संवके कण्ठ गद्गद् हो गए, सव मन ही मन प्रभु के साधु-पथ की सफलता के लिये मगल कामनाए करने लगे। भीष्म-प्रतिज्ञा ___ अव महामहिम भगवान महावीर ने एक भीष्म प्रतिज्ञा की"आज से बारह वर्ष तक जब तक केवल-ज्ञान का महाप्रकाश प्राप्त न होगा तब तक मैं जन-सम्पर्क से सर्वथा अलग रहकर आत्मसाधना करूंगा। सभी प्रकार के केप्टो को समता से सहन करूंगा।" १ वारस वामाइ वोसट्ठकाए,चियत्तदेहे जे केई उवसग्गा समुप्पज्जति त जहा - दिव्वा वा, माणुस्सावा, तेरिच्छिया वा, ते सव्वे उवसग्गे ममुग्पन्ने समाणे मम्म सहिस्सामि, खमिस्सामि, अह्यिासिस्सामि । 'प्राचा०, श्रु० २.१० १३ पन्न ३९१ 'पञ्च-कल्याणक] [४५
SR No.010168
Book TitleBhagavana Mahavira ke Panch Kalyanaka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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