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दीक्षामहस्रया राज्ञा, मल्लिपश्चिी विभिस्त्रिभिः शत, वासुपूज्य: 'षट्शत्या, पाश्च सहस्रेण सह.प्रबजितास्तथा एको भगवान्न केनापि सहेत्यतोऽद्वितीय ।
रागद्वेष की सहायता से रहित होने के कारण कोई अन्य व्यक्ति दीक्षित होने वाला उनके साथ नही था, अतः भगवान महावीर को अद्वितीय कहा गया है। मनःपर्यवज्ञान की उपलब्धि
जैन-शास्त्रो की मान्यता के अनुसार जान पाच प्रकार के होते हैं१ मति-ज्ञान, २ श्रुत-जान, ३ अवधि-जान, ४ मन.पर्यव-ज्ञान और ५ केवल ज्ञान। इन्द्रियो और मन की सहायता से पदार्थों को जाननेवाला ज्ञान मतिनान, शास्त्रो के पढने-सुनने से उत्पन्न होनेवाला बोध श्रुतज्ञान, इन्द्रिय और मन की सहायता के विना रूपवान् पदार्थों को ग्रहण करनेवाला ज्ञान अवधिज्ञान, इन्द्रिय और मन की सहायता के विना समनस्क जीवो के मनोगत भावो को जाननेवाला ज्ञान मन.पर्यवज्ञान और त्रैकालिक समस्त पदार्थो को हस्तामलक-वत् एक साथ जानकारी करानेवाला ज्ञान केवलज्ञान कहलाता है।
जैन-दर्शन की यह मान्यता है कि तीर्थकर भगवान जब गर्भ में अवतरित होते हैं तब वे अवधि-ज्ञान से युक्त होते हैं । अत: चरम तीर्थकर भगवान महावीर गर्भस्थ अवस्था मे ही अवधिनान के धारक थे, परिणाम स्वरूप वे इन्द्रियो और मन की सहायता के विना ही मर्यादापूर्वक रूपी पदार्थों को जान सकते थे और देख सकते थे। उन्होने गर्भकाल मे माता बित्रला के विषाद और हर्ष पूर्ण दृश्यो से प्रभावित होकर माता-पिता के जीवित रहने तक दीक्षा ग्रहण न करने की जो प्रतिमा की थी, इसके पीछे भी अवधिज्ञान को शक्ति ही काम कर रही थो।
तीर्थकर भगवान को पूर्व जीवन-कृत अध्यात्म-साधना के प्रभाव से गर्भकाल मे जैसे अवविज्ञान की उपलब्धि होती है, वैसे ही पूर्वभवीय “तप -साधना के वल से दोक्षा ग्रहण के साथ ही उन्हे 'मनं पर्यव-ज्ञान की भी उपलब्धि हो जाती है । इसीलिये ज्ञातृ-कुल-शिरोमणि भगवान ८४]
[ दीक्षा-कल्याणक