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महोत्सव के उपलक्ष्य में बजाए जानेवाले विविध बाजों की ध्वनियां भी बन्द कर दी गई ताकि शान्त वातावरण में भगवान महावीर दीक्षा का पाठ पढ सके और मनुष्य देवो का समुदाय भी मंगलमय उस दीक्षापाठ को ध्यानपूर्वक श्रवण कर सके ।
जब कोई महासाधक किसी गुरु की शरण ग्रहण कर दीक्षित होता है तब वह गुरु के लिये सम्मानार्थ 'भन्ते ।" शब्द का प्रयोग करता है, परन्तु भगवान महावीर के लिये किसी गुरु की आवश्यकता न थी, क्योकि गुरुओ द्वारा जो कुछ सीखा जाता है, उसे वे पूर्वजन्मों में सीख चुके थे, उन्हे किसी शास्त्र का श्रवण कर उद्बोध प्राप्त नही करना था, उन्होने तो केवल अपने अन्तर में अवस्थित ज्ञान-स्रोत को उद्घाटित करना था । उन्होने उद्धरेदात्मनात्मानम् - अपना उद्धार ग्राप हो करो, की उक्ति के अनुसार अपना उद्धार आप ही करना था, अत. वे स्वयं ही दीक्षित हुए ।
श्रद्वितीय महावीर
जैन साहित्य का परिशीलन करने पर पता चलता है कि जब भगवान ऋषभ देव दीक्षित हुए थे तो उस समय उनके साथ चार हजार राजा और भी दीक्षित हुए थे । इसी प्रकार भगवान वासुपूज्य के साथ छ: सौ, भगवान मल्लिनाथ और पार्श्वनाथ के साथ तीन-तीन सौ व्यक्तियो ने दीक्षा अङ्गीकार की थी । इन तीर्थङ्करों के अतिरिक्त अन्य जितने भी तीर्थङ्कर हुए, उनके साथ एक-एक हजार व्यक्ति प्रवजित हुए, परन्तु भगवान महावीर ही एक ऐसे तीर्थङ्कर थे, जिनके साथ अन्य किसी व्यक्ति ने प्रवज्या ग्रहण नही की। वे अकेले ही साधु बने । इसीलिये कल्पसूत्रकार ने इनके लिये - 'एगे अबीए" कहा है जिसका भाव स्पष्ट करते हुए टीकाकार कहते हैं
एको रागद्वेषसहायविरहात् अद्वितीयः यथा हि ऋषभाचतुः
१ (क) दिव्वो मणुस्स घोसो, तुरियणिणाम्रो य सक्कवयणं ।
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खिप्पामेव णिलुक्को, जाहे पडिवज्जइ चरित ॥ १ ॥ --भाचा० भा० २ (ख) श्रावश्यक चूर्ण, प्रथम भाग पृ० २६२.
पञ्च-कल्याणक 1
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