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परन्तु दाढ़ी मूंछ और सिर के समूचे केश पांच मुटियो से कैसे उखाड़े जा सकते हैं ? यह विचारणीय है । वुद्धि इसकी व्यावहारिकता पर सन्देह करती है। एक बार लुवियाना में जैन-धर्म-दिवाकर प्राचार्यप्रवर पूज्य श्री आत्मा राम जी महाराज ने श्री कल्पसूत्र का अध्ययन कराते हुए पच मुष्टि केशलोच शब्द का जो अभिप्राय समझाया था मुझे वह तर्क-संगत एवं व्यावहारिक जान पड़ता है । पूज्य गुरुदेव ने कहा था कि जिस व्यक्ति ने केग-लुञ्चन का दृश्य देखा है वह यह अच्छी तरह जानता है कि लोच करनेवाला व्यक्ति अपनी अगुलियो से केशो को उखाड़-उखाड़ कर अपनी मुट्ठी में एकत्रित करता चला जाता है, लुञ्चित केशों से जब मुट्ठी भर जाती है तब वह केशो को छोड़ कर मुट्ठी खाली कर लेता है। मुट्ठी भरने और भर जाने पर उसके रिक्त करने का यह क्रम चलता ही रहता है। इस तरह जिस लोच में केशो की पांच मुट्ठियां भर ली जाएं अयवा जिस लोच में केश पचमुष्टि-प्रमाणवाले हों उनकी लोच को पच-मुष्टि-केशलोच कहा जाता है । पच-मुष्टिलोच का यह रूप वुद्धिगम्य जान पड़ता है।
__ तदन्तर दीक्षा ग्रहण करते समय सर्वप्रथम प्रभु ने 'णमो सिद्धाण' कह कर सिद्ध भगवान को वन्दना की । वन्दन करने के पश्चात् देव मनुष्यों के विशाल समुदाय के सामने ही करेमि सामाइय, सव्व सावज पंचक्वामि" यह दीक्षा-पाठ पढ़ कर उन्होंने सामायिक चारित्र अङ्गीकार किया। . . . .
सामायिक ग्रहण करते समय भगवान महावीर ने 'भते !' इस पद का प्रयोग नहीं किया, क्योंकि सभी तीर्थ कारों का परम्परागत ऐसा ही माचार होता है । अाज तक जितने भी तीर्थङ्कर हुए हैं, वे सभी करेमि सामाइय सञ्चं " .." इन्ही पदो का उच्चारण करते हैं।
महावीर जिस समय प्रवजित जीवन मे प्रवेश के लिये दीक्षा-पाठ पढ़ रहे थे उस समयं देव मनुष्यों का सब कोलाहल शान्त हो गया तथा । सम्पूर्ण पाप-कर्णे'का तीन करण और तीन योग से त्याय करता हूँ अर्थात् - मन वचन और कर्म में न स्दय हिमा करूंगा; न किसी से हिंसा करवा
ऊंगा और न ही हिंसा करनेदाते का कभी समर्थन ही करूगा। ,
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[दीक्षा-क्ल्याणक,