________________
दीक्षा- कल्याणक
0,
हजारो हृदय भगवान महावीर के चरण सेवक बन कर अपना कल्याण करने की कामना कर रहे थे। हजारो हाथ अपने-अपने इष्ट मित्रो को भगवान का परिचय करवा रहे थे और हजारो मस्तक प्रभु के मंगलमय पावन चरणो मे श्रद्धा पूर्वक प्रणत हो रहे थे ।
इस तरह देव - वन्दनीय भगवान महावीर की शोभा कुछ निराली ही दृष्टिगोचर हो रही थी । तरुण दिवाकर का प्रखर तेज नेत्रो के लिये जैसे प्रसह्य होता है, वैसे ही भगवान महावीर रूप तरुण दिवाकर के सन्मुख आख उठाने का किसी को भी साहस नही होता था । कुण्डपुर के समस्त बाजारो को पार करते हुए भगवान महावीर ज्ञातृखण्ड नामक उद्यान में पधार गए । प्रभु पालकी से नीचे उतरे और अशोक वृक्ष के नीचे जाकर उन्होने दीक्षा-पाठ पढने के उद्देश्य से जब अपने वस्त्रो और ग्राभूषणो को उतार दिया, तभी इन्द्र ने उनके कन्धे पर एक वस्त्र रख दिया जो देवदूष्य के नाम से सर्वत्र प्रसिद्ध है । तदनन्तर भगवान महावीर ने अपने हाथो से पचमुष्टि-लोच किया ।
पंचसृष्टि-लोच क्या है ?
कल्पसूत्रीय सुवोधिका टीका के अनुसार पञ्चमुष्टि लोच का अर्थ है एक मुष्टि से दाढी मूंछ के और चार मुष्टियो से सारे सिर के केशों को उखाड़ कर फेंक देना । इस अर्थ विचारणा से यह स्पष्ट हो जाता है कि तीर्थकर भगवान गरदन से ऊपर के भागो में जो केश है उन सब को पांच मुष्टियों मे भर कर उखाड़ दिया करते है ।
१ एकया मुष्ट्या कूर्च चतसृभिस्तु ताभिः शिरोजान्, स्वयमेव पचमौष्टिक लोच करोति ।"
पञ्चकल्याणक ]
["