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________________ की स्थापना किसी साम्प्रदायिक उद्देश्य से या मत-पथ के प्रसार की दृष्टि से नहीं की थी। उनका एकमात्र उद्देश्य यही था कि अज्ञान के अन्धकार में भटकती हुई जनता ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप शुद्ध धर्म की आराधना संगठित होकर एक विचारसूत्र मे वध कर करे। इसीलिये भगवान महावीर की स्तुति मे उन्हे जैन या किसी भी मत पथ या सम्प्रदाय के संस्थापक न कह कर 'धम्मतित्थयरे जिणेधर्ममय तीर्थ (संघ) की स्थापना करनेवाले जिन कहा गया है। यही कारण है कि भगवान महावीर के धर्म-सघ मे सभी वर्गों के स्त्री और पुस्प, साधु-साध्वी और श्रावक-श्राविका के रूप मे पाए, उन्होने सघ की उन्नति के लिये भरसक प्रयत्न किये । परन्तु भगवान महावीर के निर्वाण को २५०० वर्ष हुए, इस लम्बी अवधि के इतिहास से पता लगता है कि इस दीर्घकाल के दौरान वडी-वडी क्रान्तिया हुई, अनेक ज्योतिर्धर युगद्रष्टा आचार्य हए, जिन्होने समाज के रथ-चक्र को समय की धुरी पर टिकाने का भरसक प्रयत्न किया, फिर भी खेल के मैदान मे इधर-उधर उछल जानेवाले फुटवाल की तरह समाज भी बीच-बीच मे अपने केन्द्रस्थल से हट कर इधर-उधर उछलते रहे, भटकते रहे। पहले कहा जा चुका है कि भगवान महावीर के निर्वाण के समय नो उनकी जन्म-राशि पर भस्मग्रह चल रहा था उसके प्रभाव से श्रीसंघ मे दो हजार वर्ष तक क्रमश ज्ञान-दर्शन-चारित्र मे न्यूनता पाएगी। इस भविष्य कथन के अनुसार सघ मे ज्ञान-दर्शन-चारित्र की न्यूनता और गौरव मे कमी के लक्षण अवश्य प्रकट हुए और वीर लोकाशाह के काल तक जैन-सस्कृति को अनेक अवरोधो का सामना करना पड़ा। यह तो स्पष्ट विदित होता है कि भगवान महावीर के समय मे जिनकल्पी और स्थविर कल्पी दोनो एक-दूसरे का आदर करते हुए, अपनी-अपनी सयम-चर्या के अनुसार वर्माचरण करते हुए, एक सूत्र मे ग्रथित रहते थे। हालाकि जिनकल्पी वस्ती से दूर जगलो और उपवनो पर्वतो आदि मे रहते थे और स्थविरकल्पी समाज से सम्पर्क रखते हुए अपनी साधना करते थे, परन्तु दोनो के बीच मे कोई खाई नही थी, दोनो एक-दूसरे से मिलते रहते थे, दोनो भगवान महावीर के शासन की छत्र-छाया मे चलते थे। पञ्च-कल्याणक] [ १५३
SR No.010168
Book TitleBhagavana Mahavira ke Panch Kalyanaka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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