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परन्तु भगवान महावीर के निर्माण के बाद श्री जम्बू स्वामी तक निर्वाण-प्राप्नि (मोक्ष-गमन) का सिलसिला चलता रहा। बाद में भरत-क्षेत्र से निर्वाण-प्राप्ति का सिलसिला बन्द हो गया। उसके बाद जिनकल्प, केवलज्ञान मन.पर्यवज्ञान एव परम अवधिज्ञान ग्रादि दम बातो का भी क्रमश विच्छेद हो गया । इस ह्रास का भगवान महावीर के धर्मसंघ पर भी बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा।
आज जो भी श्रमण-श्रमणिया इस भरत-क्षेत्र मे विचरण कर रहे हैं, वे सब आर्य-सुधर्मा स्वामी की शिष्य-परम्परा के ही है।
अव दो हजार वर्ष बीत चुके हैं, भस्मक ग्रह का प्रभाव समाप्त हो चुका है, अत अब श्रमण-सस्कृति का मेघाच्छन्न सूर्य पुनः प्रकाशित होने लगा है। वैसे तो भगवान महावीर के निर्वाण मे दो हजार वर्ष बाद वीर लोकाशाह के काल मे ही जैनधर्म धुन. प्रभावशील होकर जाग उठा था, परन्तु पच्चीसवी निर्वाण-शताब्दी के रूप मे हो रही जैन-सस्कृति की प्रभावना जैन-सस्कृति के उज्ज्वल भविष्य का दर्गन करवा रहो है।
विदेशो मे शाकाहारी सोसायटियो की स्थापनाए हो रही हैं, शराव-विरोधी अभियान चल रहे है, अमेरिका से 'अहिंसा' नामक पत्रिका निकल रहो है । जिसको सदस्य-सख्या तीन लाख बताई जा रही है। ये सव कार्य जैन-सस्कृति के प्रचार और प्रसार के ही अग हैं ।
अनेकान्तबादी जैन-सस्कृति के चारो सम्प्रदायो के एकता की ओर वढते कदम भी शासन-प्रभाव के विस्तार मे सहयोगी बनेगे, यह मेरा विश्वास है । मेरा यही विश्वास प्रभु-चरणो मे वन्दनाए अर्पित कर रहा है।
१ कल्पसून टीका पृ० २८३मण परमोहि-गुलाए, आहार-खबग उसमे कप्पे । मजमतिग केवल सिज्मणा या जम्बूम्मि वुच्छिण्णा ।
जैन परम्परा नो इतिहास भा~१९७२
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[ पञ्च-कल्याणक