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वैश्यायन नाम के एक तापस थे जो सूर्य की प्रातापना लिया करते थे। एक दिन वे सदा की भान्ति सूर्य की आतापना ले रहे थे, तापंस की जटाए लम्बी थी, उनमे से जूए गिर रही थी, पर करुणावश वे तापस उन्हे उठा-उठा कर पुन अपनी जटायो मे रखते जा रहे थे। गोगालक ने जब यह दृश्य देखा तो यह अपने सहज उद्दण्ड स्वभाव के अनुसार तापस का उपहास उडाने लगा और अनाप-शनाप बाते भी कहने लगा। तापस पहले तो शान्त रहे, पर जब गोशालक वोलता ही चला गया तव उनको आवेग आ गया, गोशालक को जलाने के लिये उन्होने तत्काल तेजोलेन्या छोड दी। तपविशेष के प्रभाव से उत्पन्न होने वाली शक्ति विशेप से जनित तेज की ज्वाला तेजोलेश्या होती है। तेजोज्वाला को निकट पाते देख गोगालक भागा और 'बचायो-वचारो' कहता हुया भगवान के चरणो से लिपट गया। गोशालक की दयनीय दशा देख कर परमकृपालू भगवान ने शीतललेश्या छोड़ कर तेजोलेन्या के प्रभाव को शान्त कर दिया। शीतललेल्या भी तपविगेप से उत्पन्न एक शक्तिविशेष होती है जो तेजोज्वाला के प्रभाव को समाप्त कर देती है। गोशालक को सुरक्षित देख कर तापस वोले-'मूढ । इन सन्तो की कृपा से तू वच गया है, अन्यथा आज तू बच नहीं सकता था।"
कूर्मग्राम मे कुछ दिन ठहर कर भगवान महावीर ने पुन सिद्धार्थपुर की ओर विहार कर दिया। रास्ते मे तिल का पौधा लहलहा रहा था। यह वही पौधा था जिसे गोगालक ने उखाड़ कर फेक दिया था। पौधा देखते ही उसे पुरानी बात याद आ गई। भगवान की भविष्यवाणी के अनुसार सात दाने देखने के लिये जब पोधे की फली तोड़ी तो सचमुच उसमे सात ही दाने थे। गोगालक भगवान की भविष्य-वाणी की सत्यता से आश्चर्यचकित रह गया। जहा उसे भगवान की वाणी पर विश्वास बढा वहा वह नियतिवाद का भी पक्का समर्थक हो गया। उसने सोचा अव मुझे भगवान से जुदा होकर स्वतन्त्र रूप से नियतिवाद का प्रचार करना चाहिये । परिणाम-स्वरूप वह भगवान से जुदा हो गया और उसने नियतिवाट का प्रचार करना प्रारम्भ कर दिया।
भगवान महावीर धीरे-धीरे सिद्धार्थपुर पधार गए। वहा से जब भगवान वाणिज्यग्राम को ओर जा रहे थे तो मार्ग मे उन्हे नदी पार पन्न-कल्याणक]