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दोनो चातुर्मास उन्होने तपस्या में ही व्यतीत किए। चातुर्मास मे किसी भी दिन इन्होने अन्न और जल का सेवन नही किया । चातुर्मास समाप्त करने के अनन्तर चातुर्मास स्थानो से बाहिर जाकर तपस्या के पारणे किये । चातुर्मासो से पूर्व भगवान ने “भद्दा सन्निवेश" तथा "लोहार्गला" आदि अनेको ग्राम एव नगर पावन किए। इस सुदीर्घ यात्रा मे उन्हे नाना प्रकार के कष्टो का सामना करना पड़ा । प्राकृतिक उत्पातो, राजकीय पीडाप्रो और विविध विध यातनाओ ने उन्हे विचलित करने के प्रयास किये, परन्तु सभी प्रयासो को हिमालय से टकराते वायु के झोको के समान विफल होकर लौट जाना पड़ा ।
नौवां चातुर्मास -
राजगृह से विहार करके भगवान पुन अनार्य देश मे पधार गए । मानो सकटो मे इनको प्यार था, कर्म - निर्जरा की दृष्टि से सकटापन्न दशा में प्रभु को अधिक आनन्दानुभूति होती थी, इसीलिये दूसरी बार प्रभु अनार्य देश मे फिर चले गये । प्रभु जहा भी पधार जाते स्वय समाप्त होने के लिये परिपहसेना वही पर पहुच जाती थी। उन्हे नौवा चातुर्मास वृक्षो के नीचे तथा खण्डहरो के मध्य मे ही व्यतीत करना पडा । अनार्य देश का यह चातुर्मास समाप्त करने के ग्रनन्तर भगवान फिर आर्य देश मे पधारे ।
दसवां चातुर्मास
भगवान महावीर सिद्धार्थपुर से कर्मग्राम की ओर पधार रहे थे, गोशालक भी साथ ही थे । मार्ग मे सात पुष्पो वाले तिलो के एक पौधे को देख कर गोशालक ने भगवान से पूछा - "प्रभो । यह पौधा फल देगा या नही ?" इस प्रश्न का समाधान करते हुए भगवान बोले - " यह पौधा फल देगा और इस की फली मे सात दाने होगे ।" गोशालक अविनीत और उद्दण्ड तो प्रारम्भ से ही था, ग्रतएव उसने भगवान की भविष्यवाणी को मिथ्या प्रमाणित करने के लिये उस पौधे को जड से उखाड कर किनारे पर फैक दिया । इनके जाने के वाद वर्षा हो गई, फलत वह पौधा जड़ जमा कर धीरे-धीरे फिर खड़ा होने लगा ।
भगवान महावीर वहा से कूर्मग्राम पधारे थे । इस गाव के बाहिर
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[ दीक्षा कल्याणक