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कर पाए तब तक वे एकाकी रहै। एकाकी का अर्थ है वे अपने साथ केवल अपने को ही रखना चाहते थे। जब तक दूसरा साथ रहता है तभी तक सव उपद्रव हुया करते हैं, निस्सग जीवन में ही आत्मरमणके आनन्द की उपलब्धि हो सकती है। सगी-सायियो से हम प्रेम करते है, उन्हे अपना बनाने के लिये, परन्तु जब तक आत्मा मे प्यार न किया जाएगा तब तक प्रात्मा को अपना कैसे बनाया जा सकता है ? प्रात्म-ज्ञान के लिये प्रात्म-प्रेम आवश्यक है और वह एकाकी जीवन मे ही किया जा सकता है 1 एकाकी जीवन की निस्पृहता ही अन्य के लिये सुख-सुविधाए जुटा सकती है।
भगवान शून्य स्थानो मे-मशानो मे जाकर ध्यान लगाते थे। हम न जाने कितने लोगो को अपने कंधो पर टोकर श्मगान मे पहुंचा देते हैं और मन ही मन अपनी इस कामना को पूर्ण करते हैं कि 'चलो हम तो जीवित हैं।' यह स्वार्थ है, महावीर अपने को आप ही श्मशान मे पहुचा कर शरीर' को नश्वरता को देखते थे और शरीर की नश्वरता को देख कर ही वे शारीरिक सुख-सुविधाओं से मुह मोड़ कर स्व-भाव मे लीन हो जाते थे, वे जीते जी शरीर को छोड़ देते थे। यही कारण है कि अनेक व्यक्तियो द्वारा दी गई शारीरिक यातनाए उनको विचलित नहीं कर पाती थी। उमशान में जाकर स्वत. ही कायोत्सर्ग कर देना साधना की एक उच्चतम अवस्था है जिसे भगवान महावीर ने ही प्रदर्शित किया है। निर्वाण की ओर :
निर्वाण यह एक महत्त्वपूर्ण शब्द है । निर्वाण शताब्दी के सन्दर्भ मे इस पर भी थोड़ा विचार कर ले। मरना और निर्वाण ये दो निकटवर्ती शब्द हैं, क्योकि दोनो मे शरीर का त्याग होता है, मरने
का अर्थ है पुन. ससार मे लौटना, ऊपर उठकर नीचे गिरना और निर्वाण है केवल ऊपर उठना, लौटने की प्रक्रिया का वन्द हो जाना, मृत्यु के सिर पर पैर रखकर वहा पहुच जाना, जहां पहुंचने पर न भाना होता है और न वहा से जाना होता है, आने-जाने की प्रक्रिया से मुक्त हो कर अक्षय रूप मे अवस्थिति ही निर्वाण है । निर्वाण के बाद ये सब उपद्रव, वे सब व्याधिया एव उपाधिया समाप्त हो जाती हैं
[ सोलह