________________
धर्म
भगवान महावीर की दृष्टि मे "वस्तु-स्वभाव ही धर्म है"-- "वत्थु-सहावो धम्मो" का उद्घोप कह रहा है कि आत्म-अवस्थिति ही धर्म है । प्रात्मा जिसे चेतना भी कह सकते हैं उसका स्वभाव है ऊपर उठना, वैसे ही जैसे ज्योति का स्वभाव है ऊपर उठना । ज्योति मिट्टी के दीपक के साथ चाहे वधी रहे, परन्तु वह वध कर भी ऊपर की ओर ही उठती है । चेतना भी भौतिक वन्धनो से वधी हुई है, अत: वह अपने ऊपर उठने के स्वभाव को भूल वैठी है। तुम्वे का स्वभाव है पानी की सतह पर तैरना, परन्तु पत्थर बांध कर पानी में फैका हुआ तूम्बा डूब जाता है, इसी प्रकार कर्म-भार से बधी चेतना भी ससार-समुद्र मे एव वासनाओ के महानदो मे डूब जाती है। वासनानो के पाषाणो से मुक्त चेतना भी पुन: ऊपर उठने लगती हैऊपर उठ जाती है। चेतना को यह उत्थान ही धर्म है।
वस्तु-स्वभाव के अन्तर्गत हम मानवीय कर्तव्यों को भी रख सकते हैं, कर्तव्य-पालन मनुष्य का स्वभाव है, अत: कर्तव्य-पालन भी धर्म है । कर्तव्य-सीमा प्रत्येक व्यक्ति की भिन्न है। अहिंसा
अहिंसा एक केन्द्र-विन्दु है जिसके चारो ओर करुणा, दया, सहानुभूति, प्रेम और मैत्री के बारे है । अहिंसा सूर्य है, करुणा-दया आदि उसकी किरणे हैं। सूर्य-किरणो के विना नही रह सकता, अहिसा भी करुणा आदि के बिना नही रह सकती । ऐतिहासिको का कथन है कि विगत २५०० वर्षों में इस पृथ्वी पर लगभग चौदह हजार लडाइयां लडी जा चुकी है। जो प्रति-दिन पड़ोसियो मे, परिवारो मे लड़ाइयां होती हैं उनकी गणना तो असम्भव ही है। लड़ाई चाहे कैसी भी हो उसका मूलं हिंसा की प्रवृत्ति है और उसके आस-पास अनायास ही क्रूरता, भयकरता, घृणा, ईर्ष्या, विद्वेप आदि इकट्ठे हो जाते हैं।
आज राजनैतिक सामाजिक, पारिवारिक एवं वैयक्तिक सभी क्षेत्रों में फैली हिंसा के कारण ही सर्वत्र शान्ति है। जव अशान्त जगत को कही शान्ति की किरण दृप्टि गोचर होती है तो वह अनायास ही
[ तेरह ]