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उसकी जीभ काट दी जाय और वेदो को याद करले तो उसका शरीर काट दिया जाय ।
यज्ञीय हिंसा के कारण महाभारत युग से पूर्व तक का राजायो का वहुत वडा वर्ग हिंसावादी बन गया था, उसी हिंसा की भयकर प्रवृत्ति ने महाभारत जैसे भयकर युद्ध को जन्म दिया, यही कारण है कि महाभारत के काल से ही वैदिक ऋपि भी अहिंसा को परम धर्म कहने लग गए थे। महाभारत के अनुशासन पर्व मे कहा गया है
अहिंसा परमो धर्मस्ताहिसा परो दमः। अहिंसा परमं दानमहिंसा परमं तपः॥
-महा० अनु० १२६-२ अहिंसा ही परम धर्म है, अहिंसा ही परम दम है, अहिंसा हो सवसे वडा दान है और अहिंसा ही सवसे वडा तप है।
महाभारत काल मे वाईसवे तीर्थङ्कर श्री नेमिनाथ जी हुए थे, यदुवशीय क्षत्रियो पर उनका प्रभाव भी था ही, अतः श्रीकृष्ण के मागवत-धर्म मे अहिंसा, सत्य, अचौर्य और अनहकार आदि तत्वो की प्रधानता है, परन्तु तत्कालीन समाज के शास्ता ब्राह्मणवर्ग ने उन अहिमा-स्वरो को विशेष उभरने नहीं दिया, अत., "यज्ञार्थ पशवः सुष्टा:" का स्वर मन्द नही हो पाया ।
भगवान महावीर के काल तक हिसावादी क्षत्रिय-कुल प्राय, अपनी शक्ति खो चुके थे, पूर्व के काशी, कोशल, विदेह आदि गणराज्यो मे भगवान पार्श्वनाथ के अनुयायी अहिंसा-धर्म का प्रचार करना चाहते थे, परन्तु उस प्रचार के लिये जिस जीवट की आवश्यकता थी वह जीवट उनमे न था। उसी जीवट की पूर्ति के रूप में भगवान महावीर ने जन्म लिया था।
यह ठीक है कि वैदिक काल तक ब्राह्मण सस्कृति नारी जाति को पुरुष के समान ही आदर देती थी, गौतमी आदि इसके निदर्शन हैं, १- अथ हास्य वेदमुपश्रृण्वतस्त्रपुजतुभ्या धोनपरिपूरणम्, उदाहरणे जिव्हाच्छेदो, धारणे शरीरभेद ।
-गौतम धर्मसूत्र १६५ २२ ]
[.जन्म कल्यामक