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________________ संस्कृति और ब्राह्मण-संस्कृति के युगो तक साथ-साथ चलते रहने का संकेत करते हैं । यहाँ एक बात और स्पष्ट करने योग्य है कि दोनो परम्पराए यद्यपि साथ-साथ चलती रही, परन्तु दोनो का लक्ष्य एक दूसरे से सर्वथा भिन्न था। ब्राह्मण-संस्कृति धर्म को जीवन के लिये मानती थी और श्रमण परम्परा जीवन को धर्म के लिये स्वीकार करती थी, अत ब्राह्मणी के हांथो मे पड कर धर्म एक व्वेवसाय बनता जा रहा था और श्रमण परम्परा मे धर्म ग्राध्यात्मिक सावना का उच्चतम रूप उपस्थित कर रहा था । ब्राह्मण संस्कृति भौतिक सुखो के लिये धर्मसाधना करती थी और जैन संस्कृति की साधना का लक्ष्य था आत्मसाक्षात्कार । ब्राह्मण-संस्कृति मे प्रेय की प्रधानता रही और जैनसंस्कृति मे श्रेय की । ब्राह्मण-संस्कृति ने "जीवेम शरदः शतम् " - आदि के रूप मे देवताओ से जीवन-साधनो की भिक्षा मागी, देवो का दासत्व स्वीकार किया, परन्तु श्रमण परम्परा ने आत्म-ज्ञान के लिये ससार की समस्त सम्पत्तियो को स्वाहा कर देवाधिदेव बनने का मार्ग प्रशस्त किया । ब्राह्मण धर्म प्रवृत्ति परायणता को महत्त्व दे रहा था और जैन संस्कृति निवृत्ति परायणता को प्रमुखता दे रही थी । महावीर की श्रावश्यकता वैदिक सस्कृति की लोक-कल्याणाभिमुखता के कारण जनमत उस ओर आकृष्ट हो रहा था यह सत्य है, परन्तु उपनिषदो के काल मे लोक-परायणता एव हिंसा - प्रधान यज्ञीयं कृत्यों से जनता का मन निवृत्तिमार्ग की ओर मुड गया था । यही कारण है कि छान्दोग्य उपनिषद में 'यज्ञों' को टूटी-फूटी नाव बताया गया है, परन्तु ब्राह्मणो का प्रवृत्तिवाद जन-मन को ऐसे जकडे हुए था कि वह निवृत्ति-मार्ग की श्र ेष्ठता को समझ कर भी उसकी ओर उन्मुख नही हो पाता था । ब्राह्मण वर्गे ने वेदो को ग्राजीविका का साधन मान कर उस पर पूर्ण अधिकार कर लिया था और उन अधिकारो की सुरक्षा के लिये यहा तक विधान बनाए कि यदि शूद्र वेदमन्त्र सुनले तो उसके कानो मे गरम शीशा और लाख डाल दी जाए, यदि वह उच्चारण करे तो पञ्चवल्यायक ] [ २१ 779
SR No.010168
Book TitleBhagavana Mahavira ke Panch Kalyanaka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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