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________________ संस्था भारत में आर्यों के आगमन से पूर्व विद्यमान थी ।" मान्य जैन ग्रन्थ 'आगम' कहलाते हैं और सभी जैन तीर्थङ्कर 'पण्णत्त' कहते हैं जिसका अर्थ है कि यह ज्ञान-धारा शाश्वत है, आगम प्ररूपित सत्य परम्परा प्राप्त है, ग्रत केवल इसकी प्ररूपणा की जा रही है अर्थात् उसको पुनः कहा जा रहा है । - मोहनजोदडो की खुदाई में प्राप्त भगवान ऋषभदेव की कायोत्सर्ग - मुद्रा इस विषय का ज्वलन्त साक्ष्य है कि जैन धर्म की प्राचीनता को अस्वीकार नही किया जा सकता । रूसी समाज-शास्त्री श्रीमती गुमेवा ने भी अपनी पुस्तक 'जैनिज्म' में यह स्वीकार किया है कि हडप्पा के सास्कृतिक अवशेषों के रूप मे प्राप्त मोहरों पर कित स्वस्तिक चिन्ह निश्चित हो जैन वने के प्रतोको मे से एक है, अनं जैन संस्कृति वैदिक संस्कृति से भी पूर्व को सस्कृति है । यह तो माना जा सकता है कि ऐतिहासिक अन्वेषणों की पहुंच अभी तक वहा नही हुई है जहा मे जैन संस्कृति के पूर्वतम अवशेष प्राप्त हो, परन्तु ऋग्वेद' आरण्यको एवं उपनिषदों मे जिन निवृत्ति वर्मा मुनियों को 'वातरेगना' कहा गया है वे जैन मुनीश्वर हो थे । अनएव डा० वासुदेव शरण ने स्पष्ट लिखा है कि "प्राचीनकाल मे जव गोव्रतिक, श्वाव्रतिक, दिशार्तिक आदि सैंकडो प्रकार के सिद्धान्तों को माननेवाले आचार्य थे, उन्ही दिनो निर्ग्रन्य महावीर भी हुए । श्रमण परम्परा के कारण ब्राह्मण वर्म मे वानप्रस्य और सन्यास को प्रश्रय मिला ।" श्रीमद्भागवत् और वाल्मीकि रामायण मे भी श्रमण परम्परा के उल्लेख जैन १. मुनयी वातरशना पिशङ्का वसने मला २. वातरशनाहंवा ऋषयः श्रमणा ऊर्ध्वमन्थितो बंभूवु । ३- श्रमणोऽमणा तापसी नन्वागत पुण्येतानन्वागत पापेन तीर्णो हि तदा सर्वान् शोकान् हृदयस्य तरति । -- वृहदारण्यक ४-३-२२ ४- श्रमणा वातरशना प्रात्मविद्याविशारदा. 1 भागवत १२-२-२० ५- तापता मुञ्जते चैव श्रमणाश्चैव भुञ्जते ॥ २० ] 1 -ऋ० १०-१३५-२ - वाल्मिकी जाण१-१४-१२ [' जन्म-कल्याणक
SR No.010168
Book TitleBhagavana Mahavira ke Panch Kalyanaka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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